प्रिये संग्रहिका ,
बहुत दिनों से आने का सोच रही हूँ ,पर वही है किसी न किसी कारण से तुमसे मिलना टल जा रहा था। ४ तारीख को ही आ गयी थी यहाँ , यहाँ यानि प्रयाग। उसके बाद तो बहुत कोशिश की आने की पर व्यस्तता इतनी अधिक थी कि तुमसे मिलना टालती रही। तुम्हारे इंतज़ार की मैं जितनी तारीफ करूँ वो कम ही है। तुम्हारे इंतज़ार का अंश मात्र भी मेरे हिस्से आ जाये तो मेरे जीवन की कई सारी परेशानियाँ दूर हो जाएँ।
दूसरा दिन
सुप्रभात ,
हाँ जानती हूँ सोच रही होगी अभी अभी तो ऊपर बात की फिर ये सुप्रभात क्यों ? तो वो ऐसा इसीलिए क्योंकि ये बातें कल रात में की थीं और फिर इच्छा नहीं हुई आगे बात करने की। तो आज अभी बैठी हूँ वापस, हफ्ते भर की रामगाथा सुनाने।
शुरू से शुरू
चलो शुरू से शुरू करती हूँ। ४ को मैं यहाँ आ गयी थी क्योंकि ५ को ऑफलाइन डॉक्यूमेंट वेरिफिकेशन होना था कॉलेज में। पहुँचते ही सबसे पहले कोचिंग संस्थानों का ब्यौरा लिया गया। उसके बाद भोजन पानी किया। फिर निकल पड़े आशियाने की तलाश में। जहाँ हमने सबसे पहले पड़ताल शुरू की सिविल लाइन्स की , क्योंकि सारी कोचिंग्स यहीं है। लेकिन भाईसाहब सिविल लाइन्स में ४ फूटिये कमरे की कीमत भी आठ से दस हज़ार के बीच। और रहने लायक तो जानवरों के भी नहीं। रेट तो दिल्ली से भी आगे लगा रखा है लेकिन व्यवस्था !! रत्ती भर नहीं ! तकरीबन 6-7 जगहें देखने के बाद थकान ने अपने पाँव पसार लिए थे। उस दिन तो थक हार कर होटल में ही कमरा लेकर पूरे दिन की थकान मिटाई। दूसरे दिन फिर नहा धोकर भारद्वाज आश्रम गए और वहाँ से लौटने के बाद फिर से पड़ताल शुरू की। उस दिन सुबह सुबह मंदिर जाने का फ़ायदा ये हुआ कि पहली ही तलाश में जगह मनभावन मिल गयी। अब क्योंकि मेरे साथ एक और लोग आने वाली थी तो उसी को मद्दे नजर रखते हुए डबल सीटर रूम सात हज़ार में ले लिया। किचन कमरे से बाहर है लेकिन शेयरिंग में है। बाथरूम कमरे से अटैच्ड है लेकिन वो भी शेयरिंग में है। इन सबकी कोई समस्या नहीं थी। समस्या तो बस उस वेस्टर्न टॉयलेट को देख कर हो रही थी मुझे। लेकिन जितनी भी जगहें देखीं वहाँ सब जगह यही व्यवस्था थी। तो बाकी सुविधाओं को देखते हुए यही जगह फाइनल की गयी।
डॉक्यूमेंट वेरिफिकेशन
अब बारी थी कॉलेज में डॉक्यूमेंट वेरफिकेशन की। मैंने सुबह दस बार सारे दस्तावेजों को ठीक से देख कर रखा था लेकिन जब कॉलेज पहुंची तो याद आया फोटो रखना तो भूल ही गयी। फिर पिता जी को बताया फुल पैनिक मोड में। पिता जी ने कहा पहले शांत हो जाओ और पता करो और क्या क्या डाक्यूमेंट्स चाहिए फिर वापस लौटा जाये , वरना पता चले यहाँ फोटो लेकर आये उतनी दूर जाकर और यहाँ आकर पता चले कि एक और चीज छूट गयी।
तो सबसे पहले तो पता किया की वेरिफिकेशन हो कहाँ रहा है। और जब उस ओर मुड़े जहाँ प्रक्रिया चल रही थी तो पता चला पानी भरा है। घुटनो तक पैंट चढ़ा कर जैसे तैसे वो छोटी गंगा पार करने के बाद गंतव्य तक पहुंचे तो मालूम हुआ कि ऐसी कोई प्रक्रिया वहां चल ही नहीं रही है। मतलब गजब बेवकूफी है। जब चल ही नहीं रही थी तो बच्चो को इन्फॉर्म क्यों नहीं कर दिया गया। कौन कहाँ से आ रहा है किस हालात में आ रहा है क्या क्या छोड़ कर आ रहा है, ऊपर से बारिश का मौसम। उसपर ये कहते हैं की प्रक्रिया पानी भर जाने के चलते बंद है। मन तो किया वहीँ पानी में भीगी अपनी चप्पल उतार कर दे मारूँ मुँह पर। पर अफ़सोस संस्कार बीच में आ जाता है।
कम से कम एक चीज तो बढ़िया हुई , हड़बड़ी में फोटो लेने वापस उतनी दूर जाकर फिर लौटते और पता चलता प्रक्रिया बंद है फिर तो भाईसाहब जो माथा घूमता। और ऊपर से पता है , प्रयाग में मौसम थोड़ा कन्फुजियाया लगा हमको। मने दू दिन त जबरदस्त बरसलन वकरे बाद दू दिन प्रचंड घाम रहल। और इसी तरह रोज ही हो रहा है। लगता है जांच कर रहे हैं कि प्रयाग में किसका इम्यून सिस्टम कितना स्ट्रांग है।
गंतव्य की ओर
तो अब वेरिफिकेशन होना नहीं था उस दिन और कब होना था इसकी भी तारीख नहीं दी थी उन्होंने तो हम लौट चले वहां से। जमकर पेट पूजा करने के बाद थोड़े सामान की व्यवस्था की और फिर सामान सहित पटक दिया गया हमको हमारे गंतव्य पर, कि जाओ शुरू करो यात्रा यहीं से। और गंतव्य कहाँ ? तीसरे माले पर, जहाँ चढ़ते चढ़ते हमको हमारे घुटनों की उम्र बार बार पता चल रही थी। हम भी ठहरे एक्साइटेड लेकिन थोड़ा सा नर्वस भी, चल पड़े। फिर बारी आती है विदा लेने की। पिता जी जाते जाते ४-५ बार पूछे बेटा कोई समस्या तो नहीं? मैंने कहा नहीं। शायद जाते जाते मेरे रोने का इंतज़ार कर रहे थे, पिछली बार की तरह, ताकि मुझे बाद में चिढ़ा सकें। मैं तो नहीं रोई लेकिन पिता जी थोड़ा भावुक हो गए थे पिछली बार की ही तरह। मुझे लगा था जाते वक्त मैं भी रो दूंगी लेकिन पता नहीं एक ही जगह रहते रहते तंग आ गयी थी या नए सफर के शुरुवात का उत्साह था जिसने मुझे रोने नहीं दिया।
५,६ और ७ अगस्त
5 और 6 तारीख तो कमरे में बंद बंद ही गुजारी। 7 को शाम को बाहर निकली, मेरे ही फ्लोर पर एक लड़की रहती है, उसी के साथ। मेरे फ्लोर पर टोटल 4 कमरे हैं 2 कमरे डबल सीटर हैं और 2 सिंगल। तो मुझे मिलाकर कुल 4 लड़कियां रहती हैं अभी। हाँ तो कहाँ थी मैं। शाम को बाहर निकले। थोड़ा सामान लेना था। निकलना जरूरी भी था, निकलते नहीं तो रास्तों का पता कैसे चलता। वापस लौटते वक्त घनघोर वर्षा होने लगी। फिर तो हम भीगते हुए ही वापस लौटे क्योंकि रात हो चली थी और ये बारिश कब रूकती इसका तो कुछ पता नहीं था।
८ अगस्त और जन्मदिन
8 तारीख को एक मित्र का जन्मदिन था। अब सोचोगी अनजान शहर में जाते ही कौन सा मित्र। तो ये वही मित्र हैं जिनके विषय में तुमको एक बार बताया था कि यात्रा वृतांत बढ़िया कह लेते हैं। हैं तो बचपन के ही मित्र, एक साथ ही स्कूल में पढ़े हैं। तो बाकी की जगहें घूमाने का और सड़कों की पहचान कराने का जिम्मा मैंने उनको सौंप दिया। उस दिन तो गए मनकामेश्वर मंदिर। और रास्ते भर में तो जो छोटी छोटी गंगा दिखी हैं कि एक बार को लगा गाड़ियाँ छोड़ नावें उतार देनी चाहिए अब तो सड़कों पर। ख़ैर जो भी हो मजा तो खूब आया। उधर से लौट कर पेट पूजा हुई और वापस लौट चले घर की ओर। और फिर से वही हुआ लौटते वक्त बारिश। और इस बार तो कुछ ज्यादा ही रात हो गयी थी, 9:30 !! बहुत बड़ी बात भी नहीं है ये वैसे, पर जिस हिसाब से चलते चली आयीं हैं चीजे रात में निकलना अपराध ही लगता है अब तो मुझे।
९ अगस्त और रक्षाबंधन
9 तारीख को था रक्षाबंधन। और इस दिन तो भाईसाहब मेरा ढृढ़ निश्चयी मन जो पसीजा है कि पूछो ही मत। पूरा दिन ही अजीब गया। लेकिन फिर उसी दिन शाम को घटित होती है ऐसी घटना जिससे मेरे सिर का भार दोगुना हो जाता है। वही जिसकी तैयारी के सपने बचपन से दिखाए जा रहे थे मुझे, उसी संसथान में दाखिला। क्योंकि रक्षाबंधन था तो डिस्काउंट मिल गया। पर फिर भी एक साथ इतना अमाउंट जमा करना बहुत बड़ी बात है। तैयारी के बोझ से अधिक तो मुझे इस अमाउंट का बोझ लग रहा था। माँ बाप सच में बच्चों के लिए कितना कुछ करते हैं ये जानते हुए भी कि बच्चा पता नहीं उनके बुढ़ापे में काम आएगा भी या नहीं। ये इन्वेस्टमेंट भी बड़ा रिस्की है बिलकुल जुए की तरह !!
कुछ नियमित काम
इन दिनों बहुत सारे कार्य रुके हुए थे। बहुत सारे नियमित काम जो मैं करती थी वो सब प्रभावित हो रहे थे। बस एक काम जिसमे नियमितता बनी रह पायी थी वो था दिलायरी पढ़ना। उसकी तो अटूट लत लग चुकी है अब।
बस अब एक चीज सबसे ज्यादा याद आएगी यहाँ और वो है पिता जी के साथ वाद विवाद। आएगी क्या ? आ ही रही है। कल तो पिता जी भावुक भी हो गए थे बात करते करते। पिता जी आजकल अधिक ही भावुक हो जाते हैं। अपने जीवन के सबसे कठोर और मजबूत व्यक्ति को इस तरह देखना थोड़ा दुखदायी है मेरे लिए। लेकिन मैं समझती हूँ ! वो भी इंसान ही हैं और शायद उनके हृदय के सबसे निकट हूँ मैं इसीलिए अधिक भावुक हो जाते हैं।
समस्याएँ और विकल्प
कल थी 10 तारीख और पूरा दिन बिताया मैंने रूम में ही। और आज की तारीख है 11 , जिस दिन बैठ कर तुमको पूरी गाथा सुना रही हूँ।
और सब तो ठीक है पर खाना अभी खुद नहीं बनाती हूँ क्यूंकि सामान की व्यवस्था नहीं और जो टिफ़िन सर्विस कर रखी है उसका खाना तो जैसे तैसे खा रही हूँ। दाल पानी पानी रहता है। जीरा तो ढेर सारा। सब्जी समझ नहीं आती क्या बनी है. जिस दिन तरीदार होती है उस दिन तो लगता है पानी में १ चमच मसाला छोड़ दिया गया है बस !!
कोचिंग यहाँ से 3 किलोमीटर और कॉलेज 4 किलोमीटर है , इसका खर्चा अलग जायेगा। एक ही महीने में घर के बजट पर इतना भरी बोझ डाल दिया है मैंने , अब आगे ना जाने कितने महीनों का बजट हिला ही रहेगा। मेरे सपने से अधिक घरवालों की उम्मीदों और बजट का भार आ गया है मुझपर !! इसके लिए मैं शायद थोड़ा कम तैयार थी।
अकेले कमरे में मन के भाव कई दफा बदलते हैं। जिम्मेदारियां अधिक महसूस होती है। लगता है कुछ ही दिनों में कितना कुछ बदल गया है। लापरवाही को अब शायद छोड़ देने का वक्त आ गया है। अल्लहड़पने से भी विदा लेने का वक्त आ गया है अब। और तुमसे भी।
विदा दो अब। ख्याल रखना अपना।