प्रिय संग्रहिका ,
कैसी हो ?
आज फिर से रोने आयी हूँ। अगर सुनने का मन नहीं होगा तो मत सुनना लेकिन यहीं बैठी रहना।
पिछले दो दिन से मैंने क्या किया है उसका कोई भी रिकॉर्ड नहीं है मेरे पास लेकिन इतना पता है की कुछ भी प्रोडक्टिव काम नहीं किया है। बड़ा बेकार लग रहा है। आज सुबह उठते ही कलम उठाने का मन हो गया। ना जाने कैसा सपना था...और क्या था ? कुछ भी याद नहीं पर कुछ अटपटे से भाव रह गए थे वही अपने आप पन्नों पर उतर गए। तुम कहो तो सुना दूँ....तुम कहो न कहो सुनाऊँगी जरूर। हो सकता है कि कुछ समझ ना आये , बिना किसी सुधार के ताल मेल बिठाये जैसा पन्ने पर उतरा वैसा ही सुना दे रही हूँ तुमको...रुको कॉपी उठाती हूँ...
मुझे मेरे महबूब का दीदार चुभता है..
मैं रूठा हूँ खुद ही खुद से, इस बात से कि
इकरार होता भी, अगर इज़हार हो जाता ।
मेरी मंज़िल नहीं तुम ये, खुद को रोज़ कहता हूँ
मगर जब भी तलब होती, तेरा दीदार होता है !
मैं कहता हूँ मुझे हर बात का इल्म है प्यारे
गलतफहमी थी ये मेरी , अब मैं देख पाता हूँ !
मैं उससे क्या शिकायत भी करूँ ऐ 'दिलरुबा' मेरी
यहाँ तो खुद मुझे मेरी , ग़लतफहमी ने मारा है !
न मेरा अधिकार उसपर कुछ, न ही मैं छोड़ सकता हूँ
मगर अब भी देख सकता हूँ उसे, बस छू नहीं सकता !
कई रस्में कई वादे जो मैंने तब निभाए थे
अगर इज़हार कर पाता तो तुमसे दूर न होता !
मैं लिख दूँ हर ज़र्फ़ में तुमको फिर उसको सरेआम भी कर दूँ
पर डरता हूँ ; तुम्हारा रूठना मुझको गंवारा भी नहीं होता !
मुझको आरज़ू है आज भी तुमको ही पाने की
गर तुम्हारे ख्वाब देखूं तो, क्या गुनहगार होता हूँ !?
तुम्हे पाने की चाहत थी मगर खोने से डरता था
अब ऐसा खो गए तुम के, तुम्हें पाने से डरता हूँ !
ये शेरो-शायरियां सनम, कहाँ मेरे बस की थी
मेरी ही गलती ने मुझे शायर बना डाला !
रकीब से मिलने की चाहत ही नहीं मुझको
हैरान हूँ इतना तुम्हे, किसने बदल डाला !!?
कोई मतलब स्पष्ट हो रहा है ? मुझे तो नहीं हो रहा। क्यों लिखा , ये भी नहीं पता ! कोई भी पंक्ति लिखने से पहले मैंने एक बार भी नहीं सोचा , ना ही शब्दों के चयन के बारे में ना क्या विचार है उस बारे में। बस बहता चला गया।
मुझे वैक्सिंग का शौक चढ़ा था आज। हालांकि मैं इस बात की जरा भी समर्थक नहीं हूँ। बॉडी हेयर्स जरूरी होते हैं इसीलिए प्रकृति ने दिए होंगे। फिर भी मुँह उठा के इतनी धूप में निकल गयी शौक पूरा करने। दोगली कहीं की !!! बड़ा महंगा शौक था ! और दर्दभरा भी ! अच्छा दर्द में दर्द मिले तो कैसा लगता है !?
आज फिर मैच था कबड्डी का। ज्यादा बड़ा नहीं। १ टीम में बस तीन लोग। तीन भी नहीं गिनेंगे। दो तो आधे आधे गिने जायेंगे। ख़ैर टोटल छः राउंड्स हुए जिसमें से चार राउंड्स तो मेरी टीम हार ही गयी। आज लगातार हारी हूँ। हर जगह बस हार ही रही हूँ !! जिंदगी हो या खेल क्या फर्क पड़ता है !! अजीब है ना कुछ लोग खेल को ही जिंदगी बना लेते हैं और कुछ लोगों की जिंदगी ही खेल हो जाती है।
आजकल कुछ भी अच्छा नहीं लगता। चिंता बेकार होती है सखी। और मलाल उससे भी अधिक ! एक ऐसे मोड़ पर खड़ी जहाँ से कई रास्ते जाते हैं समझ नहीं आ रहा है कौन सा वाला चुनूँ !? मैं इतना कन्फ्यूज्ड रहती हूँ , कभी कभी तो इर्रिटेट हो जाती हूँ !
यार इतना जज तो मेरे मोहल्ले की आंटियाँ मुझे नहीं करतीं जितना मैं खुद को कर ले जाती हूँ ! वैसे मेरे मोहल्ले की आंटियाँ बहुत अच्छी हैं। जज नहीं करतीं। मुँह पर !!
नफरत करने लायक बहुत सारी चीजे हैं मेरे अंदर। इसके बावजूद जिनका मुझपर स्नेह है या जो मेरे प्रति दयालु हैं मैं उनकी ह्रदय से आभारी हूँ !! बहुत हिम्मत का काम है मेरे प्रति दयालुता दिखाना।
एक स्पेशल आभार तो तुम भी डिज़र्व करती हो सखी। चलो विदा दो अब।
ख्याल रखना अपना। फिर पता नहीं कब आऊँ।