प्रिये संग्रहिका ,
आज पूरे १ माह हो चुके हैं। गला आज भी उतना ही रुँधा है। आँखे आज भी उतनी ही नम हैं। जीवन में पहली दफा किसी इतने करीबी को खोया है। बच्चे रहो तो चीजे उतनी समझ नहीं आती हैं। लेकिन थोड़ा बड़े हो जाने के बाद अपने साथ साथ उन सभी का दुःख समझ आने लगता है जो उस व्यक्ति से सम्बन्धित हैं। बाहर से देखने में सब कुछ ठीक नजर आता है, पर अंदर सब कुछ खोखला हो चुका है। चीजें बिखरती दिखाई पड़ती हैं। परिस्थितियाँ देख कर भीतर एक टीस तो उठती है पर कुछ न कर पाने की लाचारी उसे व्याकुलता में बदल देती है।
कुछ कुछ बाते हैं जो बड़ी कड़वी सी लगती हैं , पर है तो सच्चाई ही !
मैंने जिन महिलाओं को कभी अम्मा की बुराई करते अपने कानो से सुना था आज वही महिलाएँ उनकी अच्छाईयाँ गिना रही थी। मुझे तो आश्चर्य होता था कि क्या ये महिलाएँ कभी अम्मा की अच्छाई देख भी सकती हैं ! लेकिन मेरा ये भ्रम भी दूर हो गया। सच ही है आपके सारे ऐब, सारे नुक्स, सारी गलतियाँ धरी की धरी रह जाएँगी, आप जरा सा मर कर तो देखिये। यहाँ मरने वाले व्यक्ति का कोई आलोचक कोई शत्रु नहीं होता !
मैं किस बात का गुमान करूँ खुद पर ? रंग, रूप, ढंग, विचार, व्यक्तित्व पर ? या नाम, रुतबा, दौलत और शोहरत पर ? अरे आदमी एक झटके में लाश हो जाता है।
बस और इच्छा नहीं है अब बात करने की। शुभरात्रि !