प्रिय संग्रिहका,
बस अभी-अभी घर के लिए निकली हूँ प्रयाग से । पता नही तुमको बताया था या नही, पर हाँ अब आगे की जीवन यात्रा यहीं से होकर गुजरेगी । पिछली बार जब आयी थी तो तुमसे क्या-क्या बातें की थीं ये भी ध्यान नहीं, पिछली बार तो शायद पिछले महीने ही आयी थी। वैसे ये मेरी पहली यात्रा है बस से अकेले वो भी इतनी दूर । चलो बात करते चलेंगे..
समय की कमी
बीते दिनो तुमसे मिलने आने की उत्कंठा कयी बार हुई पर समय की कमी के चलते मिलना टलता रहा। अभी तो बस में बैठी हूँ, खाली हूँ, तो सोचा तुमसे ही गप्पे लड़ाए जाएँ । तुम्हारा सही है कितना भी देर हो कभी गुस्सा नहीं होती यहाँ दोस्तों से 2 हफ्ते भी बात ना हो तो लफड़ा हो जाता है और फिर खुद को भी ठीक नहीं लगता। बाध्यता के दायरे हर रिश्ते में होते हैं ! तुमसे भी है पर हमारे रिश्ते की बाध्यता में मेरे स्वातंत्र्य का पूरा पूरा ध्यान रखा जाता है ! शायद यही कारण है मन हमेशा तुम्हारी ओर खिंचा चला आता है । एक लाइन पढ़ी थी कहीं..
" मनुज मन बड़ा बावरा जाकी उल्टी चाल, जो बाँधे उसको त्यागे जो त्यागे उसका गुलाम! "
धीरे-धीरे यह इतना अधिक प्रासंगिक होता जा रहा है कि हर दिन महसूस होता है।
पीछे छूटती चीजें
पता है, यहाँ आने के बाद ना जाने कितनी चीजें पीछे छूट गई हैं। न जाने कितने लोग छूट गए हैं और न जाने कितनी आदतें !! कुछ आदतें जो मुझे बहुत प्रिय थीं वो छोड़ना पड़ा , और कुछ लोग भी !!! आदतों का तो क्या ही है बनती बिगड़ती रहती है । एक छूटती है तो दूसरी बनती ही बनती है , पर लोग !? क्या वो भी इसीलिए छूटते हैं कि दूसरों की जगह बन सके ? क्या उनकी जगह सच में किसी और से बदली जा सकती है ?
निठल्लापन
कुछ लोग बहुत अच्छे होते हैं, जैसे कि मेरे दोस्त लोग! मेरे जैसी निकम्मी और नकारा साथी को सखी सहेली का दर्जा जो मिला हुआ है वो इन्हीं की बदौलत है। वर्ना तो शायद ही मैं इस दर्जे के काबिल हूँ। मेरे बगल बैठी लड़की भी PET की परीक्षा के सिलसिले में अपने गंतव्य पर जा रही है और गजब बात ये कि पढ़ते जा रही है। और एक मुझे देखो निठल्लों की तरह तुमसे गप्पे लड़ाए जा रही हूँ। मैंने थोड़ी बहुत भी पढ़ाई कर रखी होती तो शायद मैं भी फार्मूलों पर नजर मारती जाती । वैसे बहुत कम ही ये अहसास मिल पाता है , बिना टेंशन के पेपर देने जाने का। बढ़िया है ये भी बढ़िया है।
हाँ तो मैं कहाँ थी, हाँ अपने निठल्लेपन पर । जब भी आती हूँ केवल अपने बारे में ही बात किए जाती हूँ । इतना आत्मरतिक कोई कैसे हो सकता है ! वैसे इतना भी नही हूँ पहले समय समय पर आती रहती थी तो सार्थक विषयों पर चर्चा हो जाया करती थी अब आना ही इतने समय बाद होगा तो अपने जीवन में फैले सिमटे रायतों की ही बाते करूँगी ना ! तुम्हारे बारे में भी पूछ सकती हूँ पर तुमसे पूछूँ क्या !? और पूछूँगी भी तो तुम बताओगी ?
जर्नलिंग
वैसे एक बात और बताऊँ, मैं अभी जो कर रही हूँ शायद उसे आम जनमानस जर्नलिंग कहता है। तो मुझे जर्नलिंग करने में सबसे अधिक आनंद दो ही जगहों पर आता है , एक तो मेरे घर की वो चौखट जहाँ सूर्य अपने प्रथम दर्शन देता है दूसरा ऐसे यात्रा करते हुए। अभी तक अनुभव ही यही दो किए हैं। और भी कुछ जगहें हैं जहाँ इच्छा है अन्वेषण करने की , मुख्यतः प्रकृति के निकट ही लेकिन जगह शांत होनी चाहिए , सीधे शब्दों में कहूँ तो एकांत चाहिए।
लघुशंका
वैसे मैं बहुत देर से कोशिश कर रही थी कि ये बात यहाँ न लिखूँ पर अब शायद लिखना पड़ेगा क्या पता मन शांत हो जाए क्योंकि वस्ति तो शांत होने से रही। तो बात कुछ यूँ है कि न जाने क्यों जबतक मौका रहता है लघुशंका का दूर दूर तक कोई नामों निशान तक नहीं रहता और जैसे ही ऐसी स्थिति होती है कि कहीं दाँव न लगे लघुशंका वस्ति में जो हिलोरें मारता है कि पूछो मत बस !! ऊपर से ये पीरियड्स भी हैं ! और भी समस्या। क्या करूँ मैं मर जाऊँ ? मेरी कोई फीलिंग्स नहीं !? एक तो जेंडर के कारण ये ऑप्सन भी कम ही उपलब्ध होते हैं हमारे लिए।
अटपटे नाम बीमारियाँ और तैरते विषय
अभी -अभी एक नाम दिखा चिलबिला जंक्शन। कुछ जगहों के नाम तो बड़े अटपटे रख दिए जाते हैं। इसपर भी कलम मित्र से बड़ी चर्चाएँ हुई हैं। उनके यहाँ गुजरात में तो जो अजूबे नाम हैं गाँवों के ! संपूर्ण भारत का यही हाल है । समय के साथ अर्थों में आये भिन्नता के कारण अर्थ का अनर्थ हो जाता है । जी मिचला रहा है !! मोशन सिकनेस का अलग ड्रामा है। बचपन में ये सारी बिमारियाँ नहीं थी बीते कुछ वर्षों में पता नही कैसे मुझसे आ चिपकीं ! अभी इसका क्या करूँ मैं !!
वैसे यात्रा करते हुए लिखना इसलिए भी अच्छा है कि विषय नहीं खोजने पड़ते जैसे ही विषय की कमी पड़े बस एक बार वाहन की खिड़की से बाहर देख लो , ढेर सारे विषय तैरते नजर आ जाएँगे। अब उसमें से अपनी सुविधानुसार विषय खोजकर उतार दो उसे पन्ने पर । जैसे रुको मैं खोज कर लाती हूँ कोई विषय...अरे बस रुक गयी, कोई खातून चढ़ी हैं अपने शोहर के साथ और ठीक मेरी सीट के बगल आकर खड़ी हुई हैं जो कहीं उन्होने अपना वर्णन देख लिया इसमें तो स्वयं को सौभाग्यशाली समझेंगी ।
खैर बस रुक चुकी है आती हूँ थोड़ी देर में....
महिला शौचालय
भाई साहब हम जैसी आम स्त्रियों के लिए इस देश में वाशरूम मिल पाना एक लग्जरी ही है स्वच्छ और साफ सुथरे मिल पाने की तो बात ही छोड़ो। किसी ढाबे पर रुकी थी बस। जाकर पूछा तो पता चला वाशरूम पीछे है । मेरे साथ कई लड़कियों ने रुख किया उसी ओर । बड़े ही रंगीन और सुंदर शब्दों में लिखा था "महिला शौचालय", वहाँ जाकर देखा तो कोई अंदर पहले से ही था और ये दूर से ही देखकर पता चल गया क्योंकि दरवाजा टूटा था गनीमत इतनी कि अंदर का ज्यादा कुछ नहीं नजर आ रहा था । लो अलार्म भी बज गया क्लास करने का , पर दीदी तो बस में हैं ! हाँ, तो हमने तकरीबन 5-7 मिनट तक इंतजार किया । और उसके बाद जो हुआ, वो ब्रेक के बाद नहीं अभी बताऊँगी । भाई अंदर से एक अधेड़ उमर का पुरूष निकलकर बाहर आया । हम लड़कियों ने पहले तो दीवार की ओर घूरा फिर पुरूष की ओर ये पता करने के लिये कि दोनों में किसे पहचानने की गलती कर रहे हम लोग। खैर उन महाशय के निकल जाने के बाद समस्या ये आयी कि जाया कैसे जाए ? एक तो इतना इतना खुशबूदार दूसरा प्रदर्शनी के लिय खुला फाटक। अच्छा इस वाकिए को यहीं विराम देती हूँ फिल्हाल एक बढ़िया रोचक चीज चल रही है । बताती हूँ अभी....
रोचक उपकरण
अब बताओ पहले क्या बताऊँ? पहले, पहले वाली घटना बताऊँ या ये जो अभी अभी घटित हुई वो? रुको सोचने दो..
चलो पहले वाली ही खत्म कर देती हूँ पहले...तो समस्या को किनारे रखते हुए हमने आपातकाल को वरियता दी, दूसरा कोई चारा नहीं था । अब पैंट में हो जाता उससे तो बेहतर ही था। वहाँ से वापस आने के बाद पेट पूजा करने की सोची तो समोसे के अलावा कोई और विकल्प मेरी समझ में नहीं आया। जैसे ही टोकन लेकर समोसा लेने गए ड्राइवर भैया ने जो तो हाॅर्न बजाया है । जो तो हाॅर्न बजाया कि चल ही देंगे। फटाफट समोसा लिया तबतक याद आया पानी की बोतल लेकर नही निकली थी, नही भूली नही थी पर समस्या ये थी कि 2 बोतलों में एक बोतल मैं उठा लाती तो उनको 10 बार चक्कर लगाने पड़ते ऊपर नीचे। ( अब इसकी अलग कहानी है फिर कभी बताऊँगी ) । तो पानी की बोतल माँगी मैंने उनसे , उन्होंने कहा 15 रूपये । भाईसाहब 10 की बोतल 15 में लूट मचाए हैं !! फिर क्या समोसा और बोतल हाथ में लेकर बस तक दौड़ी ,और सीट तक पहुँची तो वही खातून सीट पर बैठी मिली। बड़े ही शांति से बिना कुछ बोले मैं उनके बगल आकर बैठ गई। फिर मेरी बगल वाली लड़की ने आकर कहा कि उठिए मोहतरमा ये मेरी सीट है । फिर बस चल दी। और अभी जिस घटना की बात कर रही थी वो ये थी कि बस में पहली बार मैंने किसी innovative समान बेचने वाले कल देखा वैसे तो बचपन में कयी किताब बेचने वालों को देखा है पर अब वो भी दिखाई नहीं देते। और जो तो बढ़िया टोन होती है इन लोगों की , पूरी वाइब होती है ! था क्या वो बाद में बताऊँगी, लेकिन था सिर्फ 30 का तो मैंने ले लिया , ट्राय करने के लिए।
बदला रूट
एक और मजेदार घटना हुई अभी, सुल्तानपुर से बस को किसी दूसरी ओर मोड़ दिया गया पुलिस द्वारा, इसी पर कन्डक्टर और ड्राइवर झगड़ पड़े कि आगे कहाँ से जाएगी, कितने पैसेंजर का स्टॉप छूट जाएगा, रास्ता नहीं पता, ये, वो!! हर statement के बाद दोनों का पारा बढ़ता जाए और जितना उनका पारा बढ़े बस में बैठे यात्री उतना ही जोर से हँसे..! झड़प तो सच में मजेदार थी दोनों की आनंद ही आ गया। और तुमसे बात-बात करते चरते कब आधा रास्ता बीत गया पता ही नहीं चला । बस में बैठे लगभग यात्री पेपर देने जाने वाले बच्चे ही हैं । पेपर की ही बाते करते जा रहे हैं सब। आलोचनाएँ भी चल रही हैं कि सेंटर इतना दूर भेज दिया कि बच्चे पेपर ही न दे पाएँ !!
बहुत समस्याएँ हैं पूरे सिस्टम में, यह भी एक तरह का चैलेंज ही है !! चलो अब विदा दो थोड़ी थकान हो चली है स्क्रीन देखते देखते। बाकी बातें बाद में बताऊँगी ।
ध्यान रखना अपना।
वैसे जाते जाते एक और चीज सुनते जाओ। बस जिस ओर कटी थी वो सिंगल लेन सड़क थी और इतनी पतली कि एक बस अगर चले तो साथ में एक बाइक भी नहीं चल सकती। और सामने एक ट्रक आ गया है। 😂 और इसके बाद जिन नजरों से ड्राइवर ने कन्डक्टर को देखा सबकी हँसी फिर निकल गयी ठहाकों के साथ ! 😂🤣 चलो विदा दो!