प्रिये संग्रहिका ,
अस्वीकारता
बहुत मुश्किल होता है कुछ चीज़ों को स्वीकार पाना। दिल और दिमाग दोनों ये मानने को तैयार ही नहीं हैं कि अम्मा नहीं हैं। बीते 15-20 कैसे गुज़रें हैं ये मुझे खुद को नहीं पता। घर में जिसको देखो उसी की आँखें नम रहती थीं। इसीलिए किसी की आँखों में देखकर बात करना भी अवॉयड करती थी क्योंकि कहीं गलती से भी किसी से नज़रें मिलती थीं तो फूट-फूट कर रोना आ जाता था। राजवीर सर की एक बाद मुझे काफी रिलेटेबल लगी उस समय जब देखा कि लोगों के जमावड़े में कई बार व्यवस्था बनाने के चक्कर में लोग थोड़ी देर के लिए ही सही पर रोना भूल जा रहे थे। और सबसे अधिक छोटे बच्चों का योगदान रहा इस मुश्किल घड़ी में भी लोगों के चेहरे पर मुस्कान लाने का भले थोड़े देर के लिए सही। जबतक भीड़ थी सब व्यस्त थे , लेकिन आखिरी दिन जब सबको अपने अपने गंतव्य पर वापस लौटना था, घर छोड़े नहीं छूटता था। सबसे आखिरी में हम लोग ही निकले थे तो हमसे पहले जाने वालों का जाना देखा नहीं जा रहा था।
बहुत कुछ देखा, सीखा, जाना इन दिनों। बहुत सारी बातें हमें कलेजे पर पत्थर रख कर भी बोलनी पड़ती है। तेरहवीं के विषय में लोगों को फ़ोन पर सूचित करते समय कई बार वही लाइन दोहरानी पड़ रही थी जिसे दिल नकार रहा था।
घर के पुरुष
गलत कहते हैं लोग कि पुरुष इमोशनली मजबूत होते हैं। मैंने घर में सबसे अधिक पुरुषों को ही रोते देखा है इस बार। और क्योंकि उनको जल्दी रोते नहीं देखा कभी तो उनका रोना देखकर छाती और भी फटती थी। आज पूरे 20 दिन हो चुके हैं , पर ज़ख्म अभी ताज़ा का ताज़ा ही है। लोग अपने-अपने काम पर वापस लौट चुके हैं शायद इसलिए रोने का वक्त नहीं मिलता। पर जब भी लोग वापस घरों को लौटते हैं, साथ बैठते हैं, तो भावुक हो जाते हैं। सबके मन में बार-बार एक ही बात आती है कि " अम्मा जीना चाहती थीं !! "
घर पर मंडराता संकट
पिछले ब्लॉग में जिस ARCH STONE की बात की थी वो अब निकल चुका है। और उसके निकल जाने के बाद दीवार ढहनी शुरू हो गयी है। मुझे डर इस बात का है कि एक भी दीवार ढही तो पूरा घर बिखर जायेगा। वही घर जिसको अम्मा ने अभी तक बाँधे रखा था।
स्त्री, सामंजस्य, तृष्णा और ईर्ष्या
पता है..... तृष्णा और ईर्ष्या मनुष्य को बर्बाद कर देती हैं। पर यही दोनों अगर स्त्री की साथी हो जाएँ तो कल्पना से अधिक विनाशकारी हो जाती हैं। स्त्री की कुटिलता मात्र उसको नहीं खाती, बल्कि खा जाती पूरा परिवार, घर, देश और दुनिया।
सौभाग्य से हमारे घर की स्त्रियाँ ऐसी नहीं हैं। उनमें सामंजस्य और अपार प्रेम है। इतना प्रेम की देवरानी-जेठानी कम और बहनें अधिक नजर आती हैं। मैंने अक्सर सास के देहांत के बाद घरों में उसकी छोड़ी सम्पत्ति यानि स्त्री धन को लेकर विवाद होते देखा है। पर हमारे यहाँ ५-६ लोगों के होने के बावजूद कोई भी मन मुटाव या विवाद देखने को नहीं मिला। विवाद की तो बात ही छोड़ो मैंने इस पर चर्चा भी नहीं सुनी उनके मुख से। बस औपचारिकता हेतु एक आध बार बात हुई होगी। मैंने अम्मा के बेटों से अधिक तो उनकी बहुओं को उनके लिए रोते देखा। सास कम माँ अधिक मानती थीं वे सब।
ईश्वर से यही प्रार्थना है कि हमारे घर की स्त्रियों में यही प्रेम और सामंजस्य बरक़रार रखें। संसार की सभी स्त्रियाँ बहुत शक्तिशाली होती हैं। स्त्रियाँ दिशाएँ तय करती हैं। वे चाहें तो घर को स्वर्ग बना दें और चाहें तो पल भर में तहस-नहस करके सब रख दें।
मैं और तुम
मैं और तुम भी तो स्त्री ही हैं। और हमारे मध्य का सामंजस्य हमें हमेशा ही मुश्किल घड़ी में संभालता है। कम से कम मुझे तो तुम संभाल ही लेती हो।
चलो विदा दो अब। फिर आऊँगी। ख़याल रखना अपना।
शुभरात्रि !