प्रिये संग्रहिका ,
तुम मुझसे पूछती क्यों नहीं कि " मैं तुम्हारे लिए इतनी ही प्रिये हूँ तो मुझसे रोज़ मिलने क्यों नहीं आती ? " मुझे पता है तुम नहीं पूछोगी , तुम समझदार हो या फिर शायद भोली हो कि तुम्हे मेरा स्वार्थ नज़र नहीं आता।
इस समय मन में केवल एक ही विचार राज कर रहा है और वो है सिद्धांतों के उलंघन के पश्चात उपजे ग्लानि और पश्चाताप के भाव का। और उसे मैं लिखना नहीं चाहती। मैं कुटिल हो गयी हूँ। कोई भी व्यक्ति अचानक कुटिल नहीं हो जाता, कुटिलता धीरे-धीरे ही मनुष्य में समाहित होती है। पूर्णता कुटिल हो जाने के मध्य कई सम्भावनाएँ होती हैं वापस सरल हो जाने की। लेकिन हर सम्भावना की अवधि इतनी छोटी होती है कि व्यक्ति जबतक अपने कदम वापस खींचने की सोचता है परिस्थितियाँ उसे आगे धकेल देती हैं। और कुटिलता का क्रम एक बार फिर निरंतरता की ओर अग्रसर हो जाता है।
हाँ मैंने अभी अभी ये दलील रखकर स्वयं को निर्दोष सिद्ध करने की पुरजोर चेष्ठा की है। अंतिम निर्णय फिर भी तुम पर छोड़ती हूँ। मुझे निर्दोष मानना है या अपराधी ये तुम्हारे ऊपर है।
मेरे दिमाग में ये विषय अक्सर ही घूमा करते हैं। मैं इनको पूरी ताकत लगाकर दिमाग के किसी कोने में बंद कर देना चाहती हूँ। कभी कभार सफल भी हो जाती हूँ। अभी जल्दी ही एक सज्जन, जिनसे तुम परिचित हो , उन्होंने ये विषय छेड़ दिया। मैं तो विषय की आस में गयी थी उन्होंने घाव पर हाथ रख दिया !! वैसे इन सज्जन से अक्सर या तो लिखने के लिए या फिर लिखे गए विषयों पर ही चर्चा होती है। क्यों ना इन सज्जन को " पेन फ्रेंड/कलम मित्र " बुलाया जाये। वैसे तो हमने काफी विषयों पर चर्चा की है , प्रेम से लेकर राजनीति तक। और इतनी चर्चा की है कि अब विषय ही ख़त्म होते मालूम होते हैं। हालांकि मेरा विश्वास है कि दुनिया में इतने विषय जरूर होते हैं कि चर्चा करने के लिए उम्र भले कम पड़ जाये लेकिन विषय कम नहीं पड़ेंगे। फिर मैं ये भी सोचती हूँ कि यदि ऐसा सचमुच है तो लोगो के बीच बातचीत क्यों बंद हो जाती है !? क्या सचमुच दो लोगों के बीच इतनी बाते होना संभव है कि विषय ही ख़त्म हो जाये ! या फिर ये सारा रूचि का खेल है ?
ख़ैर बात चाहे जो भी होती हो, उनलोगों के लिए बुरा तो लगता ही है जिनके बीच बातें बंद हो जाती हैं। पता है कई बार रूचि ख़त्म नहीं होती पर बाते बंद हो जाती हैं। जब cuet का पेपर देने गयी थी तो वहाँ मुझे अपनी एक बहुत पुरानी दोस्त मिली। हम दोनों 1st क्लास में एक साथ पढ़ा करते थे। मैं उसे देखते ही पहचान गयी थी। चेहरे अच्छे से याद रह जाते हैं मुझे ज्यादातर। लेकिन उससे भी अच्छे से वो अनुभूति याद रह जाती है जो किसी भी व्यक्ति के साथ होने पर होती है। उसने मुझे नहीं पहचाना। हालाकि नाम बताया उसको तो याद आ गया। तकरीबन १०-१५ मिनट बातें हुई होंगी उससे, पेपर ख़त्म होने के बाद, लेकिन वो बाते केवल औपचारिकता भरी थीं। किसे पता था कि ये वही सखी हुआ करती थी जिससे क्लास में मेरी सबसे ज्यादा बनती थी। कई बार हम पुराने दोस्तों से तो मिलते हैं मगर उनमें पुरानी दोस्ती नहीं मिल पाती।
ज्यादा बातें नहीं हो पाएँगी आज भी, काफी देर में लिखना शुरू किया। और अभी वक्त हो गया है १ बजने का, सुबह जल्दी भी उठना है। तो विदा दो अब। ख्याल रखना अपना।
शुभरात्रि।