प्रिये संग्रहिका ,
कभी तुमको ऐसा लगा है कि मैं तुम्हे for granted ले रही हूँ ? अगर लगेगा तो मुँह पर बोल देना, मेरी तरह बात टालना मत। पता है किसी अच्छे इंसान को बर्बाद होने से कौन बचा सकता है ? " सीमाएँ !" अच्छे इंसान को लोग अक्सर भोला कहते हैं। भोलापन अब मूर्खता का पर्याय माना जाता है। अच्छे लोग अब भोले नहीं , मूर्ख कहे जाते हैं। मुझे नहीं पता मैं अच्छी हूँ या नहीं , पर इतना पता है कि मूर्ख जरूर हूँ। मैं अक्सर उन बातों पर मौन साधे रहती हूँ, जहाँ मुझे असहजता होती है , जहाँ बोलना जरूरी होता है। मुझे छोटी-छोटी बातें इसलिए भी अधिक प्रभावित करती हैं क्योंकि मैं अक्सर चुप रहने का विकल्प चुनती हूँ। लेकिन यही छोटी-छोटी बातें जमा होते-होते एक दिन ज्वालामुखी की भाँति बिस्फोट हो जाना चाहती हैं। और अक्सर हो भी जाती हैं। और जब भी होती हैं मेरे आसपास वाले मुझसे नाराज़ हो जाते हैं। मुझे उनकी नाराज़गी पर आश्चर्य बिल्कुल नहीं होता है। क्योंकि उन्हें, मेरी विरोध ना करने की प्रवृति की, आदत हो गयी होती है। जिन्हें मुझसे विरोध की आशा नहीं होती वो मुझसे नाराज़ हो जाते हैं। मैं इस बात के लिए उन्हें दोषी भी नहीं ठहराऊँगी क्योंकि मेरे विरोध ना करने के कारण उन्हें इस बात का पता ही नहीं होता कि उनकी किसी हरकत के कारण मुझे असहजता हो रही।
नियंत्रण या कण्ट्रोल करना शायद मानव प्रवृति होती है। ताकतवर कोई नहीं होता। बस, जो अधिक कमजोर होता है उसे कण्ट्रोल किया जाता है।
(सुबह १० बजे लिखने बैठी थी और अभी हो रहे हैं रात के १० ! )
" पता नहीं लिखना चाहिये या नहीं " के द्वन्द में अटक कर रह गयी हूँ। लिखना तो चाहती हूँ, पर वो मुखौटा गिर जाने का डर है , जिसे हर लिखने वाला अपने शब्दों पर चढ़ाये रहता है, ताकि असल घटना, पात्र या समय उजागर ना हो जाये।
विचारों की कड़ियाँ आज बार-बार लड़खड़ा जा रही हैं। दिमाग में दौड़ते विचारों में कौन सा विचार किस क्रम में लगाया जाना चाहिए , इसी में उलझ कर रह गयी हूँ। हर भावना पन्नो पर अंकित हो जाने के लिए आतुर है।
वापस शुरू करती हूँ सीमाओं से। अभी तक की ज़िन्दगी में सबसे बेहतरीन चीज, जिसका मुझे पता चला है, वो है " सीमाएँ " ! आप उदार बनिये मगर एक सीमा में रहकर। आप लोगों की मदद करिये लेकिन एक सीमा में रहकर। आप लोगों से दोस्ती करिये , मगर एक सीमा में रहकर। आप प्रेम बरसाइये, मगर एक सीमा में रहकर। हर बुरी चीज की सीमाएँ तय करने से बहुत अधिक आवश्यक है हर उन चीजों की सीमाएं तय करना, जो आपको अच्छी लगती हैं।
सीमाओं का सबसे बड़ा रक्षक है " अस्वीकृति " , आम भाषा में कहें तो ना, नहीं या नो (NO) । एक बार आपने ना कहना सीख लिया तो आपकी आधी से अधिक परेशानियाँ तो वहीँ सुलझ जाएँगी।
दोस्त मिलने के लिए बुला रहे हैं, और आपको पता है कि वहाँ जाकर अच्छा नहीं लगेगा , तो बहानेबाजी करने के बजाय सीधे ना बोलना सीखिए। colleague आपसे कोई काम करने के लिए कह रहा है, और आपके पास समय नहीं है, तो सीधे ना कहिये। (मदद माँगने वाले हाथों को और बहानेबाजी करके काम टालने वाले हाथों में अंतर समझिये !) पार्टी के लिए तो बिना दुबारा सोचे ही ना कह दीजिये, अगर आपको पार्टी में जाना पसंद नहीं है तो !
पता नहीं मैं चीजों से भागना कब छोडूँगी !! एक "ना" नहीं कहा जाता मुझसे !! लानत है !! सामने वाले को बुरा ना लगे ये सोचते-सोचते मेरे अंदर की अच्छाई मर गयी है। और गजब बात तो ये कि मुझे इस बात का आश्चर्य भी होता है कि मेरे अंदर का प्रेम ख़त्म कैसे हो गया है , मेरे अंदर लोगो के प्रति इतनी नफरत कहाँ से भर गयी है !!!?
तुम्हे भी यही लगता होगा ना कि हरदम झल्लाई रहती है। कभी प्यार को दो मीठे बोल नहीं निकलते मुँह से, जब देखो तब रोने आ जाती है। मुझे अपने बारे में तो अब यही लगता है। मैं बहुत कोशिश करती हूँ सुधार की लेकिन अक्सर कुछ ऐसा घटित हो जाता है जिससे मेरे भीतर दबी नफरत बाहर निकल कर फ़ैल जाना चाहती है !
शुभरात्रि तो क्या बोलूँ तुमको अब। सुबह से एक ही बात में अटका के रखा है तुमको। चलो फिर भी ख्याल रखना अपना।