प्रिये संग्रहिका,
कुछ बातें पता होते हुए भी हमें उनका अहसाह नहीं होता है। या शायद हम उस वास्तविकता को स्वीकार नहीं करना चाहते हैं या फिर हममें वो वास्तविकता स्वीकारने की शक्ति ही नहीं होती है। हम पता नहीं क्यों वास्तविकता से इतना डरते हैं !
आज एक स्टेटस में अपनी नानी के घर की हल्की सी झलक देखी। जल्दी कोई घर का स्टेटस लगाता नहीं। जिन्होंने लगाया था वो भी अपनी ही फोटो खींच कर पोस्ट करना चाह रही थीं लेकिन हल्की-सी झलक घर की भी दिखाई पड़ गयी। पूरे 5 वर्षों बाद देखा वो शामियाना जहाँ बचपन की छुट्टियाँ गुजरती थीं। गर्मियों की छुट्टियाँ बिताने का क्रम तो 10 वर्षों से ही बंद हो गया था। औरों की तरह मैंने कभी अपनी नानी के घर को ये नहीं कहा कि गर्मी कि " छुट्टियाँ बिताने नानी के घर जा रही हूँ "। हमेशा ही उसे नाना का घर कहती थी। क्योंकि नानी के घर मैंने नानी को कभी देखा ही नहीं ! मेरी माँ को भी उनकी शक्ल याद नहीं। पर जब भी पूछो कि नानी कैसी दिखती थीं तो गले लगाकर प्यार और दुलार से कहती हैं " बिल्कुल तुम्हारी तरह दिखती थीं मेरी छुटकी अम्मा !!" और फिर हँस देती हैं। माँ के बचपन में ही नानी के गुज़र जाने के कारण उनको बड़ी तकलीफों का सामना करना पड़ा। मगर नानी के लिए मैंने माँ को कभी रोते नहीं देखा। हाँ मगर, परिस्थितियाँ कुछ ऐसी थीं कि उनको माँ की कमी बार-बार महसूस हुई। माँ को रोते देखा नाना के गुज़र जाने पर। अचानक हृदय गति थम जाने के कारण उनका स्वर्गवास हो गया था। तब मैं कक्षा 10 में थी। इस घटना को हुए 5 वर्ष बीत गए हैं मगर माँ को आज भी बेसुध होकर रोता देखती हूँ नाना के लिए। माँ को इस बात का अफ़सोस है कि उनके पिता ने उनके लिए बहुत त्याग किये लेकिन जब उनकी बारी आयी तब उनकी जरुरत के समय वहाँ कोई मौजूद नहीं था। मामा बाहर रहते थे और मामी मायके।
नाना के अंतिम दर्शन करने भी नहीं जा पायी थी मैं। और तभी से वो घर भी छूट सा गया। उस रास्ते की ओर जाने का दुबारा फिर कभी नहीं सोचा ! वहाँ के लोग भी छूट गए। वो तो भला हो इंटरनेट के ज़माने का कि स्टेटस के अपडेट्स के जरिये थोड़ी बहुत हाल खबर बिना बोल-चाल के भी मिल ही जाती है। आज अचानक उस तस्वीर में नाना का घर देखा तो कई पुरानी तस्वीरों की धुंधली सी रेखा वापस खिंच गयी। मन थोड़ा भावुक सा हो गया। आज सुबह से पूरा दिन व्यस्त रहा। आज घर सफाई का कार्यक्रम था उससे फुर्सत मिली ही थी कि स्टूडियो से फोन आ गया। वहाँ से सीधे 6 बजे आना हुआ। और थोड़ा घर पर भी काम छोड़ रखे थे। वो सब निपटाने के बाद फ़ोन लेकर बैठी ही थी कि भावनाओं का समंदर समेटे वो तस्वीर आँखों के समक्ष आ गयी। फिर तुम्हारे पास आने से खुद को रोक नहीं पायी।
और बच्चों की तरह नहीं था मेरा रिश्ता नाना के घर से। नाना के घर जाने का मेरा जरा भी जी नहीं करता था। गर्मी की छुट्टियां होते ही नाना के घर जाने वाली बात से मेरी जान हलक में आ जाती थी। उसके बाद मैं लाख बहाने बनाने के जतन करके भी हार जाती थी। और मुझे वहाँ जाना पड़ता था। वो घर उचाट लगता था। मामा की लड़की थी मेरी ही उम्र की लेकिन छुट्टियों में वो भी अपने नाना के घर चली जाती थी। घर पर कोई नहीं बचता था। आस पड़ोस में भी बच्चों का नामो-निशान नहीं। जो थे वो सब मुझसे छोटे थे या फिर मुझसे बहुत बड़े। मेरा किसी से मन नहीं मिलता था। नाना दिन भर बाहर काम पर रहते थे शाम को घर वापस आते थे तो पक्का होता था की आम और कोल्ड ड्रिंक लेकर जरूर आते थे। आमों का तो ख़ैर बगीचा था पूरा, नाना के यहाँ। नाना के यहाँ की सबसे अच्छी याद वो बगीचा ही है, जहाँ आंधी चलने पर सभी घरों से दौड़ जाया करते थे आम बीनने। उसके बाद घर आकर माँ से डाँट भी पड़ती थी और जबरदस्त कुटाई भी होती थी। कहती थीं " आम बीने जात हाइन एतना आँधी में !! वोंही दबाइल पड़ल रहबी केहूके कानोकान खबरो ना लागी !! "
एक और काम जिसमे मजा आता था वो था नाना की हीरो वाली साइकिल लेकर पूरे गाँव में निकल जाना। साइकिल पर बैठ नहीं पाती थी लेकिन कैंची चलाना आता था। वैसे ही नचा आती थी शाम को पूरे गाँव में साइकिल। लेकिन घर वापस पहुँचती तो नाना डंडा लेकर पीछे दौड़ते। और ये दृश्य देखकर माँ केवल ठहाके लगाकर हँसती। और मैं भय से पूरे दुवारे पर गोल गोल चक्कर काटती, मैं आगे आगे , नाना छड़ी लिए पीछे पीछे। आश्चर्य भी होता था माँ को इस बात पर ऐसे हँसता देखकर उस समय पर। लेकिन अब उस हँसी में कई भाव छिपे नजर आते हैं।
पता नहीं क्यों आज ये लिखते हुए इतना भावुक हो जा रही हूँ बार-बार ! अब और नहीं लिखा जायेगा। गला रुंध सा गया है। ना जाने किसकी याद आ रही है ? नाना की, बगीचे की, उस बीते हुए समय की या फिर उस घर की जहाँ से जान छुड़ा कर भागना चाहती थी लेकिन मन बार-बार आज उसी ओर खिंचा चला जाता है !!!
ख्याल रखना अपना। विदा दो।