प्रिये संग्रहिका ,
बड़े दिन हो गया ना मिले ? जानती हूँ वादा किया था उसके बाद भी नियमित तुमसे मिलने नहीं आ पा रही हूँ। इसका पूरा श्रेय जाता है मेरे ख़राब समय मैनेजमेंट को। ये बात सच ही है २४ घंटे हर किसी की झोली में है। कुछ उसका सही उपयोग करके आगे निकल जा रहे हैं और कुछ उसका दुरूपयोग करके मेरी तरह बहानेबाजियों में गुजार देते हैं। यहाँ कोई रोज ही कुछ न कुछ लिख लेता है और एक मैं हूँ जो हफ्ते में एक बार भी तुमसे मिलने नहीं आ पाती हूँ। दैनन्दिनी से भी पिछले वर्ष के बाद भेंट नहीं हुई , कई महीनो से कोई कविता भी स्फुरित नहीं हुई। हाँ कुछ कुछ विचार कहीं से निकल आते हैं कभी कभी उसको बिना ही चिंतन मनन के पोस्ट कर देती हूँ। कल को अपनी इन्ही पोस्ट को दुबारा पढ़कर खुद को नासमझ और लापरवाह कहूं तो मुझे ताज्जुब नहीं होगा। कुल मिलकर देखा जाये तो लिखने का सारा काम बंद पड़ा है। काफी दिनों से।
पता है लिखती हूँ ना, तो एक अलग ही कल्पना की परत मेरे आसपास के वातावरण को घेर लेती है। और उस वातावरण की खुशबू जिस तरह मेरे विचारो में घुल कर पन्नो पर उतरती है मुझे बड़ी ही जादुई लगती है। मैं बहुत अच्छा तो शायद ही लिख पाती हूँ क्यूंकि मुझे बहुत ज्ञान है नहीं लिखने के क्षेत्र में। ये भी मेरी लापरवाही का ही नतीजा है। जिस क्षेत्र में रूचि है जब उसी विषय में कोई जानकारी नहीं तो लोगों को इस बात का ढिंढोरा पीटना कि 'मुझे इस विषय में विशेष रूचि है' मात्र मूर्खता है और कुछ नहीं।
25 की शाम को सबका प्लान था लखनऊ जाने का। सबका नहीं असल में घरवालों का। लेकिन उनके हिसाब से "हमने कह दिया तुमको चलना है मतलब चलना है , भाड़ में जाये तुम्हारा टाइम टेबल!! " मैं भी ज्यादा विरोध नहीं करती क्योंकि शायद मेरे अंदर ही खुद की समयसारिणी के प्रति कोई भी निष्ठा नहीं है कि उनको लगे कि मुझसे एक बार पूछ लिया जाना ठीक समझा जाये। तो मैंने भी बिना आनाकानी किये तैयारी बनाना शुरू कर दिया। मराठी में एक कहावत पढ़ी थी अभी याद नहीं आ रही है, लेकिन उसका मतलब यही था कि कई बार बुरी लत भी अच्छे काम करवा देती है। मेरे साथ भी यही हुआ। कुछ समान भी पहुचाना था लखनऊ तो वही सब ले जाने के लिए इक्कठा कर रही थी। इतने में फ़ोन हाथ में आ गया। और फ़ोन हाथ में आया तो वही इंस्टा की चकाचौंध वाली दुनिया। इतने में मुझे दिखता है एक ओपन माइक शो। फिर नजर पड़ती है सिटी पर। आमतौर पर मैं ऐसी पोस्ट्स को इग्नोर कर देती हूँ क्योंकि अपने शहर में ऐसा कुछ आयोजित होता नहीं है और दूसरे शहर जाने को मिलता नहीं है। ऐसा नहीं है कि मनाही है। पर मैं अकेले जाने को वरीयता नहीं देती हूँ। तो जब सिटी देखा तो लखनऊ दिखा। मैंने सोचा जा तो उसी ओर रही हूँ एक बार देखा जाये समय क्या है। तो समय था 3 बजे। अब मैं सोच रही हूँ कि कोशिश की जानी चाहिए या नहीं। मैंने बिना ज्यादा सोचे पिता जी फ़ोन किया और उनको अपने दिमाग में चल रही इस खुरापात के विषय में अवगत कराया। पिता जी ने हामी भर दी कि जब उसी ओर जा रहे हैं तो एक पंथ दो काज सही। फटाफट रेगिस्ट्ररशन करा लिया। लेकिन दूसरे ही दिन दोपहर में निकलना था और क्या बोलना है वहाँ जाकर ये तो तैयार ही नहीं था। और इतनी जल्दी तैयार होता भी कैसे। घबराहट में तो वैसे भी वही चीजे मुँह से निकलती हैं जो हमारे subconscious mind में पहले से होता है। इसीलिए मैं इस बात का विशेष ध्यान रखती हूँ कि अपने दिमाग को किन चीजों का सेवन करा रही हूँ। तो छोटी सी एक स्क्रिप्ट तैयार की ताकि शुरुवात की जा सके। पर जब कविताएँ खोजने की बारी आयी तो सब खाली। कुछ भी ढंग का नहीं हैं मेरे पास बोलने लायक। पता नहीं क्या लिखती हूँ फिर !! बहुत खोजने पर 2-3 कविताएँ मिल पायी। और एक बुरी आदत कि मुझे खुद की कवितायें ही याद नहीं रहतीं। उसका रट्टा कैसे मारा जाये अब ! समय बीतते देर नहीं लगती। बड़ी जल्दी चलने का समय भी आ गया। घर से लखनऊ तक की दूरी 4 घंटे की है, ट्रैफिक हो तो थोड़ा और भी। और हम घर से ही निकले 12:30 बजे। पहुँचते देर हो गयी 4:30 बजे इवेंट में पहुँच पायी। वहां देखा तो सब पहले से चालू था। मैं भी जाकर बैठ गयी मम्मी पापा के साथ। इतने में एक standup comedian with double meaning jokes करने वाले भैया पधारते हैं। भाई मेरी तो सिट्टी पिट्टी गुल। ना तो मेरे से हँसा जाये ना तो वहाँ बैठा जाये। मैंने जैसे तैसे कण्ट्रोल किया वहाँ। मम्मी के सामने उतनी दिक्कत नहीं होती पर पिता जी से इस मामले में थोड़ा कम ओपन हूँ तो थोड़ा अजीब लगता है। तहजीब भी है ! उनके ठीक बाद मेरी बारी आयी। एक तो मैंने जो कविताएँ चुनी थीं वैसी विधा की रचना मैंने कभी किसी मंच पर सुनाई नहीं थी ना ही उसे सुनाने का लहजा पता था। फिर भी जब मैदान में उतर ही गए तो क्या देखना फिर तलवार में धार है या नहीं। शुरू कर दी मैंने भी। ऑडियंस बहुत अच्छी थी। बहुत साथ दिया उसने। Engaged थी जबतक मैंने बोला वहाँ। ओवरआल कहूं तो पहला एक्सपीरियंस काफी अच्छा था। पहली बार पिता जी के समक्ष श्रृंगार रस की अपनी कोई कविता पढ़ी थी। अच्छा लगा पर ढेर सारे डर के साथ !!
मुझे बचपन से प्रसिद्धि का बड़ा शौक है। पर उसकी चकाचौंध से मेरी आँखें चौंधिया जाती हैं। घर आयी तो इंस्टा पर पोस्ट किया , more than usual response थे। व्हाट्सप्प पर भी वही CONGRATULATIONS, PROUD OF YOU, KEEP GROWING. ऐसा नहीं है कि अच्छा नहीं लगा। पर एक सीमा से अधिक चकाचौंध शायद इंसान को अंधा बना देती है। और इसी अंधेपन का नशा मेरे सिर पर सफलता के शुरुवाती वर्षों में खूब चढ़ा था। अब तो सच में लगता है जो होता है अच्छे के लिए होता है। अच्छा ही हुआ मेरा DOWNFALL आया जो मुझे आज भी धरती से जुड़े रखने लिए नम्रता प्रदान करती है। आज तो ये चकाचौंध मुझे अँधा नहीं कर सकती। अब फर्क साफ़-साफ़ नजर आता है। 2 दिन का मेला है बस। पर डर तो अभी भी लगता है कहीं सिर चढ़ जाये कभी तो ! इसका नशा तो वाकई बहुत बुरा होता है। शराबी तो एक बार को स्वीकार भी ले कि मैं नशे में हूँ। पर ये नशा तो बुद्धि ही क्षीड़ कर देता है।
अच्छा पता है ? कई बार परिस्थितियां विपरीत नहीं होती। कई बार हम परिस्थतियों के विपरीत होते हैं। कई बार हमें बस लगता है। और हम अपने दिमाग में अवधारणा बना लेते हैं।
निकिता खेड़ा 21 साल कांग्रेस की प्रवक्ता थी उन्होंने पार्टी बदल ली और भाजपा में आ गयी। ऐसे ही अभी निखत अब्बास जो 7 वर्ष भाजपा में थीं उन्होंने कांग्रेस ज्वाइन कर लिया। आमने सामने बैठ कर दोनों डिबेट कर रही थीं कि फला पार्टी ख़राब है, फलां की विचारधारा ख़राब है। इतने में मम्मी ने कहा "इतने साल दोनों जिस पार्टी में थीं तब समस्या नहीं हुई अब अचानक से दोनों के विचार कैसे बदल गए। " तो मैंने कहा यहाँ हफ़्ते महीनों में लोगो के विचार बदल जाते हैं इनका तो फिर भी लम्बा कार्यकाल रहा।
असल में समस्या पता है कहाँ आती है ? देखो बदलते तो सब हैं बदलते विचारो के साथ। पर एक चीज होती है EQUATION जो दो व्यक्तियों, संस्थाओं और संगठन के मध्य होती है। अब ये EQUATION बदलते समय और बदलते विचार के साथ कितना सामंजस्य बैठा सकते हैं, इसी पर उनके आने वाले समीकरण और सम्बन्ध निर्भर करते हैं।
तुमसे मिलने आने में भले ही कितनी भी देर हो जाये लेकिन हमारे मध्य के समीकरण इतनी जल्दी और आसानी से नहीं बदलने वाले। मैं इसका दावा तो नहीं कर सकती कि कभी बदलेंगे ही नहीं , पर हाँ इस बात का दावा जरूर कर सकती हूँ कि हमारे समीकरण के पिछले सारे फेर बदल का संचय हमें अपने पुराने समीकरणों की याद जरूर दिलाता रहेगा। और मेरी ओर से समीकरणों के ख़त्म हो जाने के बाद भी खट्टास नहीं आएगी। तुम बताओ ? तुम्हारी ओर से खट्टास आएगी या नहीं ?
चलो मुस्कुराना बंद करो अब और विदा दो। अगली बार प्रयास करुँगी जल्दी आने का ! ख़याल रखना अपना।
शुभरात्रि !
वह बात परम सत्य है की समय के साथ सब बदल जाता है, नए समीकरण बनते है, बिगड़ते है, बस हमे कितने याद रहते है यह बात काम की है..!
ReplyDeleteपुनः एक बार कवितापाठ की ढेरों शुभकामनाए..
इससे बड़ी उपलब्धि क्या ही होगीं की पिता जी के सामने स्वरचित कविता प्रस्तुत कर ली।
ReplyDeleteबहरहाल बात करें समीकरणों कि वो तो बिना किसी पाबंदी के बदलते रहते हैं तो इसके भरोसे कम ही रहें!
सफलता के पथ पर अग्रसर रहने की हार्दिक शुभकामनाएं 🙏