प्रिये संग्रहिका ,
कैसी हो ? मालूम है जल्दी आऊँगी कहकर भी अक्सर आने में देर कर देती हूँ। सच बताऊं तो वाकई इतना व्यस्त रहती नहीं हूँ मैं कि तुमसे रोज़ मिलने आने का समय ना निकल पाऊँ। पर वही बात है ना प्राथमिकता हर बार आलसपने को चली जाती है। शुरू में तुमसे छोटी छोटी बातें भी बताती थी पर तब की बात और थी। अब परिस्थितियां और प्राथमिकताएँ दोनों बदल चुकी हैं। और फिर तुमसे मिलने आती हूँ तो आराम से २ घंटे तो बिता कर ही जाती हूँ। अब रोज़ तुमसे मिलकर २ घंटे बातें करना भी तो संभव नहीं है। हर बार नए विषय कहाँ से लाऊँ। मैं मानती हूँ कि विषय कभी ख़त्म नहीं होते। पर अन्य विषयों में मेरी रूचि होना भी तो आवश्यक है। अब रुचिपूर्ण बातों को भी बार-बार करने से उसमें रूचि जाती रहती है। ख़ैर ये सब बाते तो होती रहेंगीं। तुम हर बार मुझसे शिकायत करोगी और मैं हर बार किसी न किसी बहाने की आड़ लेकर खुद को बचाती रहूंगी। पर सच तो यही है कि दुनिया ऐसे ही चलती है , प्राथमिकताओं के घटते, बढ़ते और बदलते क्रम से।
आज राम मंदिर स्थापना की पहली वर्षगांठ है। जानती हो, जब भी संघर्षों का इतिहास पढ़ती हूँ तो मानव की क्षमताओं का ज्ञान होता है। क्षमताएँ सहनशीलता की, इच्छाशक्ति की और विश्वास की। क्षमताओं की पराकाष्ठा को देखकर अक्सर मनुष्य भावुक हो जाता है। और संयोग से मैं भी एक मनुष्य ही हूँ। फिर मेरी भावुकता में कोई आश्चर्य नहीं होना चाहिए। न जाने कितने वर्ष और ना जाने कितनी आहुतियों के पश्चात अयोध्या के विशाल भवन में विराजमान उस मूर्ति में प्राणों का प्रादुर्भाव हुआ होगा। मुझे इस बात से तनिक भी आश्चर्य नहीं होता कि क्यों अक्सर उस मूर्ति को देखकर मेरे मन के भाव अचानक बदल जाते हैं ! क्यों भावों में गर्व, करुणा, संवेदना, भक्ति और श्रद्धा एक साथ उमड़ कर उस मूर्ति के चरणों में समर्पित हो जाना चाहती है ! इसलिए नहीं कि वो मूर्ति मेरे आराध्य प्रभु श्री राम की है बल्कि इसलिए क्योंकि उस मूर्ति में महान आत्माओं की आहुतियाँ समर्पित हैं। ऐसे मे प्रभु के चरणों में समर्पित होते ये सारे भाव एक साथ जोर जोर से गर्जना कर उठते हैं जय श्री राम ! जय श्री राम !
जय श्री राम ! मात्र एक जयकारा नहीं है। ये आह्वाहन है प्रभु की करुणा दृष्टि का, इस सम्पूर्ण जगत के समस्त प्राणियों पर कि शांति और खुशहाली बहाल रहे। अन्याय और अत्याचार की पराजय हो। मानव जितना सह सके और सृष्टि के यथोचित कार्य हेतु जितना आवश्यक है बस उतना ही अंधकार छाये। मूर्ख और अज्ञानी हैं वो जो कहते हैं ये नारा या जयकारा दूषित है। दूषित तो असल में उनकी मानसिकता है।
अभी कल ही "साबरमती रिपोर्ट" देखा। देखकर आँखें दंग रह गयीं। हालांकि कोई नयी बात नहीं है किसी एक महत्वाकांक्षी व्यक्ति की वजह से पूरे कौम पर कीचड़ उछलना। पर उस महत्वाकांक्षी व्यक्ति को ओछेपन के पायदान पर चढाने वाले भी उतने ही जिम्मेदार होते हैं जितना कि वह व्यक्ति। घृणा की आग में ५९ लोग जलकर भस्म हो गए। जिनमें लगभग आधी संख्या तो उन मासूम बच्चों की थी जिन्होंने घृणा भाव को ढंग से अभी महसूस भी नहीं किया होगा।
घृणा का भाव वाकई मानव जाति के लिए एक श्राप ही है। मैं उग्रवादी स्वाभाव की होते हुए भी सर्वप्रथम शांति को प्राथमिकता देती हूँ लेकिन खुद को शांति का दूत कहने वाले, घृणा की आग में, सबसे पहले आहुति शांति की ही डालते हैं। बहुत बड़ी विडंबना है ये। ईश्वर से उन व्यक्तियों के लिए सद्बुद्धि के सिवाय किसी और चीज की कामना भी नहीं की जा सकती। धार - मझदार की तो किसको चिंता है अब !? सब कुछ ईश्वर के हाथ छोड़ रखा है। वो चाहें तो डूबा दें चाहें तो पार लगा दें।
चलो विदा दो अब। अगली बार पक्का जल्दी आऊँगी। अपना ख्याल रखना। शुभरात्रि !
जय श्री राम !!