प्रिये संग्रहिका ,
बात कहाँ से शुरू करूँ नहीं समझ में आ रहा क्यूँकि बात ही कुछ ऐसी है !! पता नहीं कानून कौन सी घुट्टी पीकर बनाये जाते हैं। उन कानूनों में विवेक का कितना योगदान होता है ! उन कानूनों से न्याय मिलने की कितनी सम्भावना होती है। कुछ भी नहीं पता !
ये समाज पुरुष प्रधान होने के नाते कई दफ़ा महिला उत्पीड़न के आरोपों का शिकार हुआ है। इसमें कोई संदेह नहीं कि महिलाओं का उत्पीड़न सदियों से होता आया है , जिसके चलते समय समय पर कानून निर्माताओं ने कई ऐसे कानून बनाएं हैं जिससे इन उत्पीड़नों को रोका जा सके ! कई जगह रुके भी। इसके सकारात्मक नतीजे देखने को भी मिले शुरुवाती वर्षों में ! लेकिन पिछले कुछ दशकों से उन्हीं कानूनों की आड़ में कुछ कुटिल बुद्धि की महिलाएं उसका दुरूपयोग करके पुरुषों का शोषण कर रही हैं। फेक केसेस की बढ़ती संख्या चिंताजनक एवं खतरनाक है। पता नहीं सरकार इन बढ़ते आकड़ों को संज्ञान में लेते हुए कोई कदम क्यों नहीं उठाती है। और यदि सरकार ऐसा करना भूल रही है तो समाज सुधारक दल कहाँ सोया पड़ा है !? क्या पुरुष समाज का हिस्सा नहीं हैं !? क्या पुरुषों पर हो रहे अत्याचार उत्पीड़न की श्रेणी में नहीं आते हैं !?
महिलाओं को उत्पीड़न से बचाने के लिए कुछ कानून बनाये गए थे -
> The Dowry Prohibition Act, 1961
> The Protection of Women from Domestic Violence Act (PWDVA)
> Section 354A of the Indian Penal Code (IPC)
> Section 498A of the IPC
ये कानून महिलाओं के प्रति हो रहे उत्पीड़न रोकने में तो कारगर साबित हुए लेकिन कब ये कानून पुरुषों के विरुद्ध इस्तमाल किया जाने वाले हथियार बन गये किसी को पता ही नहीं चला। आज यही कानून, कुछ महिलाएं पुरुषों से पैसे ऐंठने के लिए करती हैं। पुरुष के साथ साथ उसके पूरे परिवार को झूठे उत्पीड़नो के मामलो में फँसा कर उनको प्रताड़ित किया जाता है। बच्चों की कस्टडी अपने पक्ष में कराने के बाद , पिता को बच्चे से दूर रखा जाता है। एलीमनी के नाम पर पुरुषों का खून चूसा जाता है। एक पुरुष से इतनी एलीमनी और मेंटेनन्स की मांग की जाती है जितनी उसकी आय भी नहीं होती। ये तो प्रासंगिक ही नहीं लगता। पता नहीं न्यायधीशों की बुद्धि और विवेक घास चरने चली जाती है या उस पर पत्थर पड़ जाता है कि इसको APPROVE कर देते हैं।
हाल ही में हुए एक सुसाइड केस ने लोगों का ध्यान फिर एक बार इस अन्याय की ओर खींचा हैं। न जाने कितने पुरुषो ने अपनी आहुति दी होगी और ना जाने कितनों को देनी होगी इस अन्याय के विरुद्ध आवाज़ उठाने के लिए। सोता प्रशाशन न जाने कब पुरुषो को प्रोटेक्शन प्रदान करने के लिए प्रोटेक्शन लॉज़ का निर्माण करेगा।
पता है , कभी कभी लगता है कानून केवल कुटिलों के लिए ही बनाये गए हैं। क्योंकि इसका उपयोग वो व्यक्ति तो कभी कर ही नहीं पाता है जिसकी इसको जरुरत होती है। वो महिलाएं जिनको असल में इन कानूनों की आवश्यकता है उनको इन कानूनों के विषय में जानकारी ही नहीं है। और जानकारी है भी तो वो वहां तक पहुँच ही नहीं पाती हैं। और जिनको जानकारी है जो पहुँचने में भी सक्षम हैं वो इन कानूनों का दुरूपयोग करती हैं। और इन्हीं महिलाओं के चलते उन महिलाओं के प्रति समाज कोई सहानुभूति नहीं रखना चाहता जो असल में पीड़ित हैं। वो पुरुष जो मासूम हैं जिनकी कोई गलती नहीं होती वो बेवजह ही लपेट लिए जाते हैं। और न्यायकि व्यवस्था भी उनका कोई साथ नहीं देता।
सोचो कोई इंसान कितना मजबूर हो गया होगा कि उसे सुसाइड करना सरल लगा होगा। और सुसाइड नोट में ये लिखना पड़ा कि अगर मुझे न्याय नहीं मिलता तो मेरी अस्थियों को कोर्ट के किसी गटर में बहा देना। सोचकर ही मन व्यथित और द्रवित हो जाता है। मुझे नहीं लगता कानून इस क्षेत्र में कुछ कर पाने में सक्षम है। शिक्षा में जबतक संवेदनशीलता और विवेक शामिल नहीं होगा तबतक कुटिल व्यक्ति मासूमों को अपना शिकार बनाते रहेंगे। कानूनों का एकांगी होना समाज और सामाजिक व्यवस्था दोनों के लिए घातक है। समाज सुधारकों का एकांगी होना भी ऐसे कुटिलों का जन्मदाता है। ऐसी महिलाये जो पुरुषों को केवल पैसे छापने की मशीन समझती हैं वो इसी एकांगी तंत्र का नतीजा है। इन महिलाओं को ये भलीभांति पता होता है कि एकांगी तंत्र उन्हीं का साथ देंगी जिसके चलते इनके कुटिल अरमान और भी प्रबल हो जाते हैं। और इनको हवा देता है यही एकांगी न्यायकि तंत्र और उन तंत्रों को समर्थन कर रही एकांगी व्यवस्था।
एकाँगता अपंगता से अधिक घातक होती है !!
आशा तो यही है कि पीड़ित वर्ग को न्याय मिले और अतुल सुभाष का बलिदान ज़ाया ना हो। न्यायकि तंत्र और न्यायकि व्यवस्था में सुधार का यही वक्त है।
चलो विदा दो अब। कुटिलता कब दरवाज़े पर दस्तक दे जाये कुछ नहीं कहा जा सकता। इंसान के अच्छे कर्म उस तक लौट कर नहीं आ रहे हैं आजकल बल्कि उल्टा हो रहा है। अच्छे और सीधे साधे लोगों को कुटिलता अधिक जकड़ रही है। ख्याल रखना अपना ! जल्दी आऊँगी।