उम्र भर ख़याली भूतों से गर मैं ना डरता ,
तो खुदा....
मैं क्या ज़ोर से जीता, क्या चैन से मरता !!
प्रिये संग्रहिका,
ये ऊपर लिखी पंक्तियाँ देख रही हो ? मेरी नहीं है। किसकी है ये भी नहीं पता। बस आज इंस्टाग्राम पर देखा तो लगा यही तो सबके जीवन की कहानी है। अच्छा अगर यही सबके जीवन की कहानी है तो सबको ये बात समझना चाहिए कि जिस तरह हम जज नहीं होना चाहते हमें दूसरों को जज भी नहीं करना चाहिए। हम शायद इसी ख्याल में अपनी पूरी उम्र गुज़ार देते हैं कि लोग हमारे बारे में क्या सोचेंगे। असल में सब यही सोच रहे होते हैं कि लोग उनके बारे में क्या सोचेंगे। किसी के पास इतनी फुर्सत ही नहीं कि वो हमारे बारे में सोचें। हमलोग पागल हैं ना ?
मैं ना एक लूप में फँस चुकी हूँ। CONFUSION के लूप में। बचपन से लेकर आज तक CONFUSION ने मेरे बहुत से कामों में अड़ंगा डाला है। आज भी फंस जाती हूँ कई दफा। पर इस बार जहाँ फंसी हूँ वहां से निकलना मुझे मुश्किल लग रहा है। उल्टा मैं और फँसती जा रही हूँ। नहीं ये OVERTHINKING बिलकुल नहीं है। जबतक ये CONFUSION मेरा नुकसान करती थी तबतक सहनीय था , लेकिन अब ये CONFUSION मेरे साथ साथ कई लोगों का नुकसान करने पर तुली है। अगर वो लोग मुझे प्रिये न होते तो शायद बस बुरा लगता। लेकिन इस बार प्रभावित होने वाले लोगों में वो हैं जो मुझे प्रिये हैं। और इस बार मुझे बुरा नहीं लग रहा है बल्कि ये मुझे अंदर ही अंदर खाये जा रहा है। मुझे नहीं समझ आ रहा है मैं क्या करूँ!? फ्लो के साथ चलने का निर्णंय लिया था लेकिन फ्लो की दिशा मुझे दो ओर बहा कर ले जा रही है। जो कि संभव नहीं है। कोई एक साथ दो दिशाओं में नहीं बह सकता। मैं खुद को रोकना चाहती हूँ। पर ऐसा लगता है ये मेरे हाथ में ही नहीं है। मैं जहाँ हूँ वहीं डूब जाने को तैयार हूँ, मैं वहीं डूब जाना चाहती हूँ पर ऐसा लगता है जैसे लहरें मुझे अधिक गहरे गर्त में डुबोने का इंतज़ाम कर चुकी हैं इसीलिए नहीं चाहतीं कि मैं यहाँ डूबूं। मैं उस गहरे गर्त में भी डूब जाने को तैयार हूँ। लेकिन ये लहरें मेरे साथ साथ कई और लोगों को लपेट कर लिए जाना चाहती हैं जिसके लिए मैं बिल्कुल भी तैयार नहीं हूँ। बाकियों को डूबने से बचाने के लिए केवल एक ही उपाय है - मेरा रुक जाना। जो लहरें होने नहीं देना चाहतीं। खुद को ना रोक पाने का ख़याल मुझे बेचैन कर जाता है। ये व्याकुलता मुझे भीतर ही भीतर खाये जा रही है।
मैं ये परिस्थिति किसी और को नहीं समझा सकती , क्योंकि लोगों का यही प्रश्न रहेगा कि तुमने लहरों में पाँव उतारे ही क्यों ? और उतारे तो नियमों का उल्लंघन क्यों किया ? उन्हें नहीं समझ आएगा कि लहरें मुझे दो दिशाओं में बहाकर ले जाना चाहती हैं !! क्योंकि ये तो असंभव है। मुझे इसलिए भी असहाय महसूस होता है क्योंकि मेरी परिस्थिति समझकर कोई मुझे दिलासा देने वाला भी नहीं है। दिलासा देना मुश्किलें हल नहीं कर सकता लेकिन व्याकुलता जरूर कम कर देता है। और कई बार व्याकुलता कम होना ही परिस्थितियों का हल होना मुमकिन कर देता है।
पता है , कुछ दिन पहले मैं सोच रही थी तुमसे सर्दियों और पीरियड्स के बारे में बात करने के लिए। जिस दिन सोच रही थी उसी दिन पीरियड्स आ गए। नियत तारीख से पहले इसका आ धमकना भी कष्टदायी है और नियत समय के बाद भी। और नियत समय पर आ जाये तब भी कोई सहूलियत नहीं है। तब भी मुश्किल ही होती है। अब ये सौभाग्य था या दुर्भाग्य, मुझे नहीं पता, कि परीक्षा के ठीक एक रात पहले आ गया। और इस बार भी पूरे कार्यक्रम की तयारी करके आया था। CRAMPS , BLOATING , VOMITING, BACKACHE.
मुझे कई बार महसूस होता है कि हृदयगति में भी थोड़ा ऊपर नीचे कुछ हो जाता है। बताऊं कैसा लगता है ? जैसे छोटे से पूल में बड़ा सा पत्थर ऊपर से फेंका जाता है तो जो प्रतिक्रिया होती है पानी की बिल्कुल वैसे। एक एक BEAT महसूस होती है।
कोई नयी बात नहीं है इसका मेरे IMPORTANT दिनों में आ धमकना। होली, दिवाली, राखी, परीक्षाएँ , सब ATTEND करने आते हैं महाराज ! BIRTHDAYS में मेरे दोस्त भले पीछे रह जाएँ लेकिन इनका कार्यक्रम तैयार रहता है। कभी कभी जब खुद के आने में देरी हो जाती है तो अपने तैयार किये हुए कार्यक्रमों को ही भेज देते हैं। कमी महसूस नहीं होने देते अपनी !
जीवन बहुत अच्छा चल रहा था इसके बिना। लेकिन वो सुखद जीवन केवल 11 वर्षों की अवधि का था। प्रकृति बड़ी क्रूर है। 11 वर्ष में तो बच्चे सीधी बनयान भी नहीं पहनना सीख पाते और बेचारी बच्चियाँ पैड संभालना सीख जाती हैं। आज जब सुनती हूँ कि 7-8 वर्ष की बच्चियों को पीरियड्स शुरू हो जा रहे हैं पर्यावरण में बदलाव के चलते तो सुनकर हाय लगती है। 7 ! 8 ! ये तो कुछ ज्यादा ही क्रूर हो गया। इस उम्र में तो सीधी चप्पलें भी नहीं पहनी जाती। जूतों के फीते तक बाँधने नहीं आते। बालो को गूथना नहीं आता। कईयों को तो चम्मच भी सीधी पकड़नी नहीं आती। पता नहीं ऐसे में कम उम्र की बच्चियां पैड्स की सीधी साइड कैसे पहचानती होंगी।
आज जब अपना MENARCHE ( FIRST PERIOD ) याद करती हूँ तो हँसी आती है लेकिन तब बड़ा डरावना अनुभव था। असल में इसकी शुरुवात ही हुई थी EXAMS में आने से तो क्यों ना हर EXAM में आ धमका करे !? हालाकि गनीमत ये थी कि आखिरी पेपर के दिन आया था। उन दिनों लड़कियों के SKIRTS चलते थे और स्कर्ट के नीचे SHORTS पहनना अनिवार्य था। और वो भी DRESSCODE के अनुसार सफ़ेद रंग का ही।
एक दिन पहले से ही पेट में जबरदस्त दर्द था। मुझे लगा कुछ उल्टा सीधा खा लिया होगा तो गैस की समस्या हो गयी होगी। लेकिन अंदर तो कुछ और ही खिचड़ी पक रही थी। दूसरे दिन स्कूल गयी तो वहां भी हाय तौबा मचा रखा था। जैसे तैसे पेपर निपटा कर स्कूल से घर वापस पहुंची। फिर जब ड्रेस चेंज करने की बारी आयी तो देखा सफ़ेद शॉर्ट्स में लाल धब्बे बड़े बड़े ! मेरे दिमाग में सबसे पहला जो ख्याल आया वो था - कैंसर ! मैं ज़ोर से चीखी थी घबराहट में। आज भी जब याद करती हूँ तो वो चीख मेरे कानों में सुनाई दे जाती है। पर अब डर नहीं लगता, हँसी आती है।
इसके बाद माँ का ज्ञान शुरू होता है...apart from how to use pads and all....
पहला वाक्य था " लड़कों से दूर रहना ! और कोई भी बात हो तो सीधे आकर मुझसे बताना। "
मुझे तब तो इसका अर्थ नहीं समझ आया था और अजीब भी लगा था लेकिन आज समझ आता है। मुझे लगा था मेरी ही माँ ने ये अजीबोगरीब सुझाव मुझे दिया था। पर बाद में जब बाकी सखियों से बात हुयी इसपर तब समझ आया कि सबकी माओं का पहला सुझाव यही था !
शायद हमारी माओं की माओं ने भी उनको यही सुझाव दिया था। पीढ़ी दर पीढ़ी चलकर ये ज्ञान हमतक भी पहुंचा है। धरोहर के रूप में। हमें भी इस सम्पदा को आगे प्रेषित करना ही पड़ेगा। करना भी चाहिए। मैं करुँगी भी। लेकिन कुछ सुधारों के साथ।
अचानक से मेरा अछूत हो जाना मुझे सबसे ज्यादा खला था। अब कन्या खाने बाकी लड़कियों के साथ नहीं जाती थी मैं। सुबह सुबह फूल तोड़ने की परंपरा भी इन दिनों में बाध्य हो गयी थी मेरे लिए। मंदिर में जाना वर्जित हो गया था। अचार, जो मुझे सर्वाधिक प्रिये थे, उनके डब्बों के पास मुझे भटकने नहीं दिया जाता था।
मैं वास्तव में बहुत छोटी थी इन सारी बातों को समझने के लिए। और शायद मेरी माँ को जैसा सिखाया गया उन्होंने मुझे भी सिखाने की कोशिश की। मुझे बुरी लगीं बहुत सारी चीज़ें। मेरी माँ को भी निस्संदेह बुरी लगी होगी। लेकिन वो शायद चीजों को वैसे का वैसा पेश करने के लिए खुद को बाध्य समझती थीं। या शायद उनको बताया गया था कि इसी बाध्यता के साथ ही चीज़ें परोसनी है। जो भी बात रही हो। मैं उनको इस बात का दोषी नहीं ठहराऊँगी। लेकिन मैं इस बात पर भी पूरा ध्यान दूंगी कि मेरे बाद की पीढ़ी को ये असहजता ना झेलनी पड़े।
कुछ व्यस्थाएँ बनाने के चक्कर में प्रकृति भी क्रूर हो जाती है। प्रकृति माँ होती है। और माँ की क्रूरता सबसे अधिक खलती है।
चलो बहुत हुआ अब। वैसे वो जो सबसे ऊपर पंक्तियाँ थीं वो सूत्रों के हवालों से पता चला है कि अमरीश वर्मा जी की है। लेखक को उसके लेख का क्रेडिट देना बड़ा ही पुण्य का काम है। और इस plagiarism भरी दुनिया में तो और भी बड़ा पुण्य का काम है। और एक लेखक होने के नाते मेरा कर्त्तव्य भी बनता है। भले ही लेखक स्वघोषित क्यों ना हो !!!
विदा दो अब। फिर आऊँगी। ख़याल रखना अपना।