प्रिये संग्रहिका ,
तुम्हें ये नाम कैसा लगता है ? पता है तुम्हें ये नाम क्यों दिया ? क्योंकि तुम्हारे पास मेरी उन सारी बातों का संग्रह है जो शायद ही कभी कोई उतने ध्यान से पढ़े। कुछ फ़ालतू बाते भी हैं जिसे शायद मैं खुद भी दुबारा मुड़कर ना पढूं पर तुम संजोयी रखती हो। तुम्हारे अंदर कितना संयम और धैर्य है ना ! हम मनुष्यों में इतना धैर्य नहीं होता। हमारे धैर्य का बांध अक्सर टूट जाता है। कभी गुस्से से , कभी ख़ुशी से, कभी भावनाओं के चलते और कभी हृदय की डोर हाथ से फिसल जाने के कारण। मैं ना कभी कभी सोचती हूँ कि हृदय की डोर किस fabric से बनी होती होगी। तो बहुत सोचने पर आंकलन कर पाती हूँ कि लोगों के हृदय की डोर किसी भी fabric से क्यों ना बनी हो पर मेरे हृदय की डोर इलास्टिक की है। इसे जितना खींच कर रोकने का प्रयास करती हूँ ये उतना ही दूर भागने को तैयार हो जाता है। पता नहीं मेरे पास रहने में इसे क्या तकलीफ है !
कई बार हम कई बातें बिना कहे भी कह जाते हैं। कई बाते अप्रत्यक्ष होते हुए भी समक्ष होती हैं। कुछ नाम अपने ना होते हुए भी अपने से लगते हैं। और कुछ दूरियाँ....(छोड़ो ये पूरी नहीं हो पायेगी)
पता है मुझे कभी कभी लगता है कि अच्छा ही है, मैं अक्सर कन्फ्यूज्ड रहती हूँ क्योंकि स्पष्टता से मुझे डर लगता है। जब हृदय चीख चीख कर अपने भीतर की स्पष्टता प्रकट करता है तो डर लगता है। मैंने अक्सर ही इसीलिए हृदय को अप्राकट्य ही रखा है। पर क्या डर को कैद रखने से डर ख़त्म हो जाता है !? मुझे नहीं पता मैं तुम्हें क्या बताना चाहती हूँ और क्यों बताना चाहती हूँ। पर मैं बताना चाहती हूँ। पिछले कई दिनों से कई लेख शुरू किये लेकिन अधूरे ही छोड़ दिए क्योंकि उटपटांग बाते थीं। उटपटांग भावनाएँ ! पर मुझे लगता है बार बार स्वयं को किसी चीज से पीछे घसीटने से वो चीज सामने से हट नहीं जाती बल्कि उस तक पहुँचने की आतुरता और अधिक बढ़ जाती है।
कल गाँव गयी थी। बड़े दिनों बाद। अब गाँव जाकर वो आनंद नहीं मिलता जो बचपन में स्कूल की छुट्टियों में जाने पर मिलता था। घर में रहने की आदत नहीं थी कभी। गाँव जाने के बाद घर की ओर तभी रुख करते थे जब सोना होता था। वरना तो सारा दिन इधर से उधर दौड़ भाग किया करते थे। सारे खेत-खलिहान, बगीचे, दोस्तों के घर, गौशाला सब पैदल ही नाप आया करते थे। अब गाँव सूना लगता है। क्योंकि बीते दस वर्षों में बहुत कुछ बदल गया है। एक चीज जो नहीं बदली वो है लड़कियों का जल्दी ब्याह । मेरे साथ की जितनी लड़कियां थी सबका ब्याह हो चूका है। एक आध को छोड़कर। मुझे समझ नहीं आता इतनी क्या जल्दी होती है लड़कियों को विदा करने की। मैं गाँव में रहती तो शायद मेरी समझ में आती ये बात। चूकी बचपन से ही गांव से बाहर निकल गयी तो अब वो माहौल नहीं रहा। माहौल बदला तो समूह और वातावरण भी बदला। वातावरण बदला तो विचार भी बदले। विचारों में विवाह की समझ भी बदली। अपनी समझ को एक किनारे रखकर जब मैंने गाँव में लोगों से पूछा कि क्या कारण है लड़कियों के जल्दी विवाह का ? और सच बताऊं तो मुझे एक भी जवाब तार्किक नहीं जान पड़ा। कुछ जवाब जो मुझे ध्यान रह गए हैं वो बताती हूँ तुमको। कुछ का कहना था कि अनंत काल से ही कौन लड़कियों को अपने घर रख पाया है। लड़कियां पराया धन होती हैं। वो दूसरों की अमानत होती हैं। ( इस बात में तो भारी मिथक है अनंत काल की तो बात ही छोड़ो, इतिहास में जहाँ से हमको जानकारी है वहीं कई ऐसे प्रमाण मिल जाते हैं जो इस बात का खंडन करते हैं। पर छोडो इतिहास में कहाँ घसीटा जाये इन भोले भाले लोगों को। ) कुछ और लोगों ने बताया कि जल्दी ब्याह ना हो तो आसपास के लोगों को लगता है जरूर लड़की में कोई दोष है। ( केवल ये दर्शाने के लिए लड़की का जल्दी व्याह कर देना कि उसमें कोई दोष नहीं है, वाकई मूर्खता की पराकाष्ठा है। ) कुछ लोगों का तो ये भी कहना था कि इज्जत बची रहे इसीलिए कर दिया जाता है जल्दी ब्याह ( अब इज्जत बची रहे से ये तात्पर्य है कि कहीं किसी की गन्दी नजर ना पड़े। और एक बात ये भी सामने आयी कि लड़कियां भाग ना जाएँ प्रेम प्रसंग में पड़कर अपने प्रेमी के साथ। ) इतने ही याद हैं बस। तुम बताओ क्या तुम्हे एक भी जवाब तार्किक मालूम पड़ा ? अब तुम कहोगी कि कोई तो निर्धारित उम्र होनी चाहिए ब्याह की। तो तुम्हारी नजर में ब्याह करने की क्या उम्र होनी चाहिए ? तो देखो, मेरी नजर में ब्याह करने की उम्र वही ठीक है जब आप जिम्मेदारी उठाने के काबिल हों। वो भी क्या ब्याह कर लेना कि खुद को भी नहीं संभाल पा रहे हों और दूसरों को संभालने की जिम्मेदारी सिर आन पड़ी हो। लेकिन लोगों का एक तर्क ये भी है कि जबतक जिम्मेदारियां सिर पर नहीं आतीं इंसान जिम्मेदार नहीं होता। ठीक बात है। मैं भी सहमत हूँ इस बात से। लेकिन विवाह सहयोग के लिए किया जाता है। एक दूसरे की जिम्मेदारियां बांटने के लिए। न कि जिम्मेदारियां बढ़ाने के बाद आपस में बांटने के लिए।
जैसे लोगों की बाते मुझे तर्कहीन लगती हैं मेरी बातें भी लोगो को तर्कहीन लग सकती हैं। अपना अपना नजरिया है। पर सबको चलना समाज के नजरिये से पड़ता है। घूम घुमा कर हर बात में समाज पर आने की आदत हो गयी है। कहीं मुझे समाज से प्रेम तो नहीं !!😅
प्रेम नहीं ,पर हाँ लत जरूर लग गयी है। नशा केवल मादक पदार्थों का ही बुरा नहीं होता बल्कि हर वो चीज जिसकी आपको घनघोर लत लगी हो वो नशा ही तो है। मुझे भी नशा है कई चीजों का। जिसमें सोशल मीडिया नंबर एक पर आता है। नंबर दो पर तुम आती हो। और आजकल एक नशा और तूल पर चढ़ा है, किसी के लेख पढ़ने का, ये नशा तो तुम दोनो को भी पछाड़ ही देगा लगता है। किसी के रोज लिखने की क्षमता कबतक बनी रह सकती है ? शायद इतनी तो होती ही है कि वो किसी को अपने लेख का आदी बना दे। और फिर एक दिन अचानक ब्रेक ले ले कि चल भई आज पढ़ने वालों की साँस ऊपर-नीचे करते हैं।
पिता जी ठीक कहते हैं नशा बुरा है। और तब तो और भी बुरा है जब ये दूसरों पर आश्रित हो। जैसे रील का नशा, धूप का नशा, किसी से रोज बात करने का नशा और किसी के लेख रोज पढ़ने का नशा इत्यादि।
इधर भी नशा है, उधर भी नशा है
जिसे देखो यहाँ, वो नशे में फँसा है।
किसी को है मेरा किसी का मुझे है ,
किसी न किसी का नशा हर किसी को है।
चलो विदा दो अब, बड़ा नशा नशा हो गया। जल्दी आऊँगी। ख्याल रखना।