प्रिये संग्रहिका ,
पिछला लेख अधूरा ही छोड़ दिया था। उसके लिए माफ़ी। वो फिर कभी पूरा करुँगी। आजकल कुछ लिखने से पहले उसकी तमाम सम्भावनाये दिमाग में घूमती रहती हैं। और किसी भी विषय पर लिखने से पहले अपने नज़रिये को स्पष्ट और उस पर टिके रहना पड़ता है। मैं बस वहीं चूक जा रही हूँ। विषय की स्पष्टता हो भी जा रही है तो उसपर टिके रहने की क्षमता दिमाग के सार्वभौमिक परिक्षण के चलते डिग जा रही है।
राजनीति भी एक ऐसा ही विषय है। मुझे आश्चर्य होता है सोच के कि कहाँ एक समय ऐसा था जब राजनीति से भिन्न मेरी कलम से कुछ और निकलता ही नहीं था। और इस विषय पर मैं लगातार कई दिनों तक लिखती रहती थी। और एक आज का दिन भी है। साल भर होने को आये कुछ भी नहीं लिखा। बस कभी कभार लोगों से चर्चा हो जाती है। उसमे भी केवल उन्ही से जो बहुत करीबी हैं या जो मेरी ही विचारधारा वाले हैं उन्ही से। विपरीत विचारधाराओं से लड़ने की ताकत नहीं बची है मुझमे। या यूँ कह लें कि समझदारी आ गयी है। इसीलिए अब बहस करने के बजाय लोगों की हाँ में हाँ मिलाकर आगे बढ़ जाती हूँ।
आश्चर्य हो रहा होगा ना कि आखिर बिना राजनीति पर चर्चा किये मैं जीवित कैसे हूँ !? नहीं मैं बिल्कुल नहीं रह सकती। आज भी हर शाम खाने पर चर्चा हो जाती है पिता जी के साथ। तर्क वितर्क होता है। लेकिन किसी को अपने पाइंट्स सिद्ध करने की होड़ नहीं होती। इसीलिए ये चर्चा मुझे अच्छी भी लगती है। पर मेरी माता जी को नहीं पसंद आती है शायद। क्योंकि जब जब चर्चा एक सीमा से अधिक बढ़ जाती है तो माता जी कहती हैं "चुप कर जाओ अब, वरना दोनों की ख़ैर नहीं !! " लेकिन कभी कभी खुद भी उस चर्चा में शामिल हो जाती हैं। मैं अक्सर ही उनके पक्ष का विरोध करती हूँ जैसे कि "मंदिर नहीं बनना चाहिए , अब लोग पत्थरबाजी भी ना करें अपना विरोध जताने के लिए !?" तो प्रतिउत्तर में माता जी भी कह देती हैं "बेटा आज का खाना तुम्हारा कैंसिल, अब अलापो राग !! " फिर मैं कहती हूँ "ये कैसा तर्क हुआ ?" तो वो भी कह देती हैं "बिल्कुल तुम्हारे तर्क की तरह बकवास और बेबुनियाद !!"
तुमसे राजनीति पर चर्चा करने नहीं आयी हूँ। बल्कि कुछ ऐसी चीजे रहीं हैं जिसे मैं मात्र राजनीति समझने की भूल करती आयी हूँ। उसे ही स्पष्ट करना है बस।
कुछ दिनों पहले संभल वाले मामले पर कुछ जजों को चर्चा के लिए एक न्यूज़ चैनल पर बुलाया गया था। मैंने सोचा इंटेल्लेक्टुअल्स की ये डिबेट मिस नहीं करनी चाहिए तो खाना लेकर बैठ गयी टीवी के सामने। फिर उन इंटेल्लेक्टुअल्स की बातें सुनकर निवाला गले में अटक गया। जैसे तैसे पानी के सहारे निवाले के साथ-साथ उनकी बातों को भी गले से नीचे सरकाया।
मैं मंदिर बनने के विरोध में नहीं हूँ। मैं बस उसका समर्थन नहीं करती। पर कभी कभी अपने इस विचार पर मैं स्वयं ही प्रश्नसूचक चिन्ह लगा देती हूँ। मुझे लगता है कि जब लोग सौहार्द बनाये रखने की बात करते हैं तो इसमें गड़बड़ ही क्या है। गड़बड़ सौहार्द बनाये रखने में नहीं है। गड़बड़ इस बात में है कि सौहार्द हमेशा एक ही वर्ग से बनाये रखने की बात क्यों करते हैं सब ? घर में भाई-बहनों के बीच जब लड़ाई होती है तो हमेशा बड़े भाई या बड़ी बहन को सौहार्द बनाये रखने के लिए कहते हैं बजाय इसके कि उसके पास, उपद्रव मचा रहे अपने छोटे भाई या बहन को खींच कर २ तमाचा जड़ने की पूरी स्वतंत्रता और अधिकार होता है। बल्कि मैं तो कहती हूँ ये उनका कर्तव्य है।
मंदिर क्यों बनना चाहिए ?
देखो मुझे इस तर्क से परास्त कर देना कि मंदिर से क्या ही होता है ? शिक्षा और स्वस्थ का मुद्दा सर्वोपरि होना चाहिए , तो ये तर्क बेकार है। बहुत ज्यादा दूर और बहुत पहले के समय की बात नहीं है। अफ़ग़ानिस्तान में सारी शिक्षा धरी की धरी रह गयी। स्वास्थय का तो क्या ही बताया जाये। महिलाओं का अस्पताल जाना ही वर्जित है। वहां की महिलाओं के साथ कैसा व्योहार होता है ये सो कॉल्ड लिबेरंडुस लोग भूल सकते हैं लेकिन मैं नहीं भूलूंगी। जहाँ पर महिलाओं का खुली हवा में सांस लेना भी वर्जित हो गया है , एक दण्डनीय अपराध हो गया है। उसी विचारधारा का समर्थन कर रहे लोग कहते हैं संस्कृति बचाने के नाम पर आप लोग देश को असल मुद्दे से भटका रहे हैं। मुद्दों की बात तो ऐसे लोगों के मुँह से अच्छी ही नहीं लगती है।
कल अफ़ग़ानिस्तान में बुतपरस्ती कर रहे लोगों के साथ जो हुआ वो आज बांग्लादेश में हो रहा है बहुत संभव है कि भारत में बुतपरस्ती को हराम मान रहे लोगों की संख्या में इज़ाफ़ा हो तो यहाँ भी बुतपरस्ती कर रहे लोगों के साथ वैसा ही हो।
एक किस्सा बताती हूँ तुमको....२ वर्ष पहले जब मेरी बहन हॉस्टल गयी तो वहाँ उसकी रूममेट को कमरे में तस्वीरें लगाने से आपत्ति थी। मैंने पूछा ऐसा क्यों तो उसने बताया "क्योकि उसके पूजास्थल पर तस्वीरें और मूर्तियां रखना हराम है ! "
अब बताओ भला एक ही कमरे में दो बिल्कुल विपरीत विचारधाराओं का निबाह कैसे होगा ?
मुझे किसी के पूजा करने के तरीके से कोई आपत्ति नहीं है तो किसी और को मेरी पूजा विधि से कोई आपत्ति नहीं होनी चाहिए जबतक वो पूजा विधि किसी का नुकसान ना कर रही हो।
मंदिर की बात पर कहते हैं कि मंदिर की बात कर रहे लोग सौहार्द को बिगाड़ रहे हैं। यही बात वो पत्थरबाजों के लिए कहने पर क्यों कतराते हैं ! तब कहते हैं वो उनका अधिकार है। अधिकार माय फुट। उनका अधिकार, अधिकार हमारा अधिकार बेकार !!!
जब आक्रांताओं ने हमला करके यहाँ की संस्कृतियाँ नष्ट करने का प्रयास किया तो कईयों ने अपनी जान गँवाई। हाँ पागल थे ना वो सब। और मुझे तो लगता है उन्हें रोना आता होगा यहाँ की परिस्थिति देखकर कि जिस धरोहर को बचाने के लिए उन्होंने अपनी जी जान लगा दी आज उन्ही के बच्चे उसका विरोध कर रहे हैं। हाँ वही परिवर्तित (CONVERTED) लोग !
हमने तब भी धीरज धरा। कुछ ने धर्म परिवर्तन भी किया महिलाओं की आबरू और अपनी जाने बचाने के लिए। हमने तब भी धीरज धरा जब अंग्रेजो का शाशन था। बल्कि हमें तो अंग्रेजो का शुक्रगुज़ार होना चाहिए इस मामले में कि उनके चलते खजुराहो , भोजशाला जैसे तमाम प्राचीन जगहों का हमें पता चल पाया। वरना मुझे तो नहीं लगता कि आजादी के बाद वाली भारत की सरकार, भारतीय संस्कृति को पुनः संग्रक्षित करने में जरा भी रूचि लेती। उन्होंने तो बल्कि हमें PLACES OF WORSHIP ACT 1991 से नवाज़ा।
सौहार्द की बात दूसरी ओर से भी की जा सकती है बल्कि मैं तो कहती हूँ सबसे ज्यादा आवश्यकता दूसरी ओर से होने की ही है। क्योंकि एक तरफ से पहले ही बहुत प्रयास किये जा चुके हैं।
मुझे भी नहीं पसंद है ये मंदिर ,मस्जिद , गिरजाघरों के लफड़ों में पड़ना। मैं भी मानती हूँ शिक्षा सर्वोपरि होनी चाहिए। लेकिन ये थ्योरी सभी वर्गों के ऊपर लागू होनी चाहिए किसी एक पर नहीं। पता चले कहीं सर तन से जुदा का पाठ पढ़ाया जा रहा है और यहाँ कोई शिक्षा लेकर भी क्या कर लेगा जब जान ही नहीं रहेगी तो। सबको समान स्तर की शिक्षा मिलनी चाहिए। सांप्रदायिक शिक्षा संस्थानों पर रोक लगाई जानी चाहिए। मैं नहीं कहती कि धार्मिक पुस्तकें पाठ्यक्रम में सम्मिलित नहीं की जानी चाहिए। बिल्कुल की जानी चाहिए लेकिन केवल अच्छी बातें। दूसरों के प्रति द्वेष, दंगे और हिंसा फ़ैलाने वाले पाठ नहीं।
भारत का विकाश पूर्ण रूप से तबतक नहीं हो सकता जबतक सर तन से जुदा , और गजवाए हिन्द की फिलॉसोफी रखने वाली मानसिकता का ढंग से शिक्षण ना हो जाये।
और रही बात केसरिया की तो भारत हमेशा से केसरिया था, है और इंशाअल्लाह रहेगा भी !! रहना चाहिए भी क्योकि केसरिया के तले ही सभी रंग पनप सकते हैं और फल-फूल भी सकते हैं। किसी और रंग तले ऐसा होना ना कभी संभव था और ना ही कभी संभव हो पायेगा अगर वैसी ही विचारधारा और मानसिकता वाले लोग जीवित रहे तो।
ज्यादा तो नहीं हो गया ना? मुझे तो लगता है कम ही रह गया। ख़ैर जो भी है फिलहाल तो यही रही सही राय बाँट है मेरी आगे बदलेगी भी, संभव है। जब भी बदलेगी तुमको इतल्ला जरूर की जाएगी।
चलो अब विदा दो। ख्याल रखना अपना।
इस ब्लॉक में कही गई बातों से मैं 100% सहमत हूं, और यह बात भी सत्य है कि दो विचारधाराओं के लोग कभी एक साथ नहीं रह सकते। खास तौर पर तब जब एक विचारधारा आपकी संस्कृति, देश और आपको भी नष्ट करने की कोशिश कर रही हो। यही कारण है कि अमेरिका जैसे विकसित देश मुसलमानों को कभी नागरिकता नहीं देते।
ReplyDeleteआख़िरकार किसी ने ये बात खुलकर कही 💯👏
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