प्रिये संग्रहिका ,
पिछले कुछ दिनों से सारी पोस्ट ड्राफ्ट में पड़ी हैं। पोस्ट नहीं की क्योंकि अधूरी है। अधूरी इसलिए रह गयी क्योंकि कुछ को लिखते समय नींद आ गयी। और कुछ को तो लिखते-लिखते उत्साह ही खत्म हो गया। और एक बार उत्साह खत्म हुआ तो फिर उस विषय को लिखने का मन नहीं करता। किसी भी विषय को लिखने के लिए दिमाग को एक जोन में रखना पड़ता है और एक बार दिमाग उस जोन से बाहर आया तो समझो विषय लिखा भी जाये तो घसीटना लगता है।
अच्छा एक बात बताओ तुम्हारा मेरे सिवाय कोई मित्र है !? होगा भी कैसे ! तुम्हारी बात भी तो सिर्फ मुझसे ही होती है। मैत्री समझती हो ? मेरी बातों को तुम सिर्फ अपने तक रखती हो , क्यों ? शायद इसीलिए क्योंकि तुमको पता है कि मैत्री के कुछ नियम होते हैं। जब हम अपनी बात किसी से साझा करते हैं तो इस उम्मीद से करते हैं कि वो उन बातों को किसी और से नहीं बताएगा। मुख्यतः तब जब वो व्यक्ति आपका परम मित्र हो और आप उससे अपना सबसे गहरा भेद साझा कर रहे हों।
बहुत साधारण सी बात है ना ! तुम्हारे लिए होगी क्योंकि तुम सिर्फ मुझसे मुखातिब होती हो। लेकिन सबका कोई एक मित्र नहीं होता। इंसान सामाजिक प्राणी है उसके आगे पीछे व्यक्तियों का जंजाल होता है। ऐसे में बहुत कठिन है कि आपकी बात केवल उसी इंसान तक सीमित रहे जिससे आपने बताई हो। यहाँ मैत्री का दायित्व निभाना और मुश्किल हो जाता है।
भूल अनजाने में होना क्षम्य है , लेकिन जानबूझ कर की गयी भूल मेरी दृष्टि में क्षम्य नहीं होना चाहिए। ऐसी भूल अपराध की श्रेणी में आता है।
मैत्री का आधार विश्वास होता है और जब वही ना रह जाये तो क्या उस मित्रता का कोई अर्थ रह जाता है ? अर्थ की तो बात ही छोड़ो, क्या उसे मित्रता कहना भी ठीक होगा !?
मैत्री भ्रम है..
हम सब धोखे में हैं...
किसी का भ्रम कल टूटा था,
मेरा आज टूटा है,
आपका कल टूटेगा,
और किसी का परसों..
लेकिन टूटेगा जरूर !!
बस अब और कुछ लिखने की इच्छा नहीं है ! जानती हूँ बात आज भी आधी अधूरी ही छोड़ कर जा रही हूँ। पर कभी कभी कुछ चीजों का अधूरा छूट जाना ही आवश्यक होता है। कुछ मैत्रियों का भी....
फिर आऊँगी मिलने, ध्यान रखना अपना।