जानती हो.....दिवाली का त्यौहार है, लेकिन मुझे दिवाली को लेकर कोई उत्साह नहीं है। दो दिन पहले कुछ दोस्त दिवाली पर मिलने का प्लान बना रहे थे तब तो मुझे दिवाली की तारीख पता चली। कल लाइब्रेरी से घर आते वक्त मोहल्ले के कुछ बच्चे गली में पटाखे फोड़ते दिख गए। जो कि बहुत सामान्य सी बात है। लेकिन फिर मुझे अचानक अहसास हुआ कि दिवाली का त्यौहार है और मैं क्या कर रही हूँ !?
ना तो मैंने पटाखे ख़रीदे हैं ना ही बंदूके ( पटाखे दागने वाले ) ! ना तो मुझे इस बात की चिंता है कि दिवाली पर इस बार रंगोली का कौन सा डिज़ाइन बनाना है और ना ही इस बात की उत्सुकता है कि दिवाली पर इस बार कौन से कपड़े पहनने हैं ! ना तो मैंने रंगोली के रंग इकट्ठा किये और न ही दिवाली में बनने वाले घरोंदे के विषय में कुछ सोचा। और रही बात दिवाली की खरीददारी की तो आज मम्मी ने याद दिलाया , " बेटा दिवाली पर क्या पहनना है देख लो ना हो तो चलकर दिला दूँ ! " तब जाकर मैंने अलमारी खोली और एक बार ऊपर से नीचे पूरी अलमारी को घूरा। वैसे तो मेरी अलमारी में ऐसे बहुत से कपड़े हैं जिनको अभी एक भी बार नहीं पहना है और कईयों का तो टैग भी नहीं निकला है लेकिन फिर भी हूँ तो लड़की ही तो वही लड़कियों वाली समस्या आन पड़ी। अलमारी तो कपड़ों से खचाखच भरी पड़ी है लेकिन दिवाली पर पहनने के लिए कपड़े फिर भी नहीं है। ख़ैर जाने दो ये बात तुम नहीं समझोगी क्योंकि तुम्हें कपड़े नहीं बदलने पड़ते ना।
ये इस बार दिवाली में इतनी भारी उत्सुकता की गिरावट का कारण मुझे भी बहुत अधिक ज्ञात नहीं है। बचपन में दिवाली की तारीख महीने भर पहले से रट जाती थी और दिवाली मनाने की शुरुवात हफ्ते भर पहले से हो जाती थी। किसने इस बार कौन सा नया यन्त्र लिया है. पटाखे फोड़ने का किसका यन्त्र अधिक आकर्षक है, किनका विचित्र है और किनका फुस्स है, इस बात के दिखावे हेतु गाँव के बगिया में सभा का आयोजन हो जाता था। फिर प्रतियोगिता भी आयोजित होती थी उन यंत्रों की कार्य क्षमता की प्रदर्शनी हेतु। बहुत मजा आता था।
दिवाली से पहले खिलौने वाली मिठाई, धान वाली लाई और गट्टे की भरमार हो जाती थी। और खूब दबा कर सभी खाते भी थे। बड़े-बूढ़े हिदायत देते थे, " सैगर ले ना खायो नाय तौ सगरो दाँत झरि जे ! "
आज जब वो सारी बातें याद आती हैं तो पियूष जी की वो कविता भी याद आती है और खूब प्रासंगिक व सहानुभूतिपूर्ण भी लगता है --- " वो पुराने दिन, वो सुहाने दिन ओश की नमी में डूबे वो पुराने दिन..." अब तो दिन बदल गए।
एक घटना बताती हूँ तुम्हें....बचपन में हम सब दिवाली के दूसरे दिन सुबह जल्दी उठ जाते थे। अब सोच रही होगी दिवाली वाली रात को तो स्वाभाविक है देर तक जागते होंगे सब लेकिन देर तक जागने के बाद भी सुबह जल्दी कैसे उठ जाते थे और उससे भी बड़ा प्रश्न ये कि क्यों उठ जाते थे !?
तो देखो बात कुछ ऐसी है कि दिवाली के बाद भी हम बच्चों में एक प्रतियोगिता का आयोजन होता था और वो प्रतियोगिता होती थी कि कौन सबसे अधिक दिये इकट्ठा कर सकता है। जिसके दिये की संख्या अधिक वही विजेता। उस उम्र में विजेता बनने पर कोई भी पुरुस्कार तो नहीं मिलता था लेकिन विजेता बनने के बाद जो गौरव की अनुभूति और सम्मान मिलता था वो अद्वितीय था।
ऐसे ही एक बार की बात है मेरे साथ तकरीबन ४-५ मित्रों ने मिलकर ये योजना बनाई कि लोगों के घरों से दिये इकट्ठा करने पर बहुत अधिक संख्या में दिये नहीं मिल पाते क्यूंकि लगभग दिये लोग छतों पर ही रखते हैं बस एक आध घर के दुवारे के पास रख देते हैं। तो प्रस्ताव हुआ ऐसी जगह सेंध मारने का जहाँ सबसे अधिक दिये जलाये जाते हों और वो जगह सुगम्य हो। ( अब ये मत पूछना की प्रस्ताव किसका था ? शायद अनुमान लगा भी लिया ही होगा तुमने !! 😁 ) तो ऐसी जगह थी गाँव की सबसे प्राचीन मंदिर जहाँ बड़ी संख्या में दिये जलाये जाते थे।
प्रस्ताव पारित हुआ, तो अगले दिन मैं और मेरे साथ मेरी मित्र मंडली निकल पड़ी सवेरे ५ बजे मंदिर की ओर। हम सब निश्चिंत होकर दिये बटोरने में लगे थे क्यूँकि सवेरे के ५ बजे कौन उठकर ही मंदिर की चौखट का चक्कर लगाने जायेगा। सबने दिए इकट्ठा किये और जल्दी से घर वापस लौट आये। और जब बारी आयी प्रदर्शनी की तो तुम अनुमान लगा ही सकती हो कि विजेता कौन घोषित हुआ होगा !
दिन अच्छा कटा, विजेता बनने की प्रसन्नता और गौरव मेरे साथ-साथ मेरी पूरी मित्र मंडली के मस्तक पर विराजमान थी। पैर तो आसमान में थे धरा पर उतरते ही न थे। मन प्रफुल्लित हुआ फिर रहा था उस रोज तो। बड़े-बूढ़ों को भी भान हो गया था विजेता का, हमारे मस्तक का तेज देखकर। उस दिन तो दिवाली ख़त्म होने के बाद भी हमारी दिवाली थी।
"अगले दिन अखबार के एक कोने में मेरी और मेरे मित्र मंडली की फोटो छपी थी दिये उठाते हुए !"
उन दिनों हमें एक और चस्का भी लगा था अखबार में छपे सबसे आकर्षक चित्र को देखने का और फिर अपनी मंडली में उसपर चर्चा करने का वो बात अलग थी कि चित्र के विषय में क्या आर्टिकल छपा होता था उसकी हमे रत्ती भर परवाह ना थी । नियमित आदत के चलते उस रोज भी हमने अखबार टटोलना शुरू किया तो हमें अचानक मंदिर से दिए उठाते हुए हमारे मित्रमंडली की फोटो नजर आयी। गजब ANGLE से फोटो लिया गया था जैसे एकदम करीब से किसी ने खींचा हो।
हम आश्चर्यचकित थे कि हमारे विजय की चर्चा अखबारों तक कैसे पहुंची ! साथ ही इस बात की ख़ुशी भी थी कि हमारे विजय के चर्चे इस बार अखबारों तक हुए।
हम आश्चर्यचकित थे कि हमारे विजय की चर्चा अखबारों तक कैसे पहुंची ! साथ ही इस बात की ख़ुशी भी थी कि हमारे विजय के चर्चे इस बार अखबारों तक हुए।
दौड़ कर हमने अपने अपने घरों में इस विषय में बताया तो घरवालों को भी आश्चर्य हुआ तो उन्होंने अखबार खोला बावजूद इसके कि सबने पहले से ही अखबार चाय पीते वक्त ही पढ़ लिया था। या यूँ कह लें कि सरसरी नज़र से देख लिया था। उन्होंने अखबार खोला फोटो देखा तो अचरज हुआ फिर आर्टिकल का विषय देखा तो मोटे-मोटे अक्षरों में लिखा था "मंदिर की चौखट से दिये में बचे हुए तेल इकट्ठा कर रहे गरीब बच्चे !"
मामले की छानबीन होती है कि " गाँव मा कउन पत्रकार एतना सवेरे उठ कय लड़केन के फोटू मंदिरिप खींच लिहिस " तो पता चलता है कि गाँव के ही कुछ बच्चे जो शहर में पत्रकारिकता की पढ़ाई कर रहे थे उन्हें ही PROJECT मिला था 'दिवाली में बहुतायत संख्या में दिये जलाने के बजाय किसी जरूरतमंद की मदद करने हेतु प्रोत्साहन देने वाला ARTICLE चित्र सहित। ' और जिसका आर्टिकल सबसे अच्छा उसके ARTICLE को समाचार पत्र में जगह। बलि का बकरा बन गए बेचारे विजेता बनने के लालयित हम बच्चे !! ख़ैर विजेता तो ये (पत्रकार छात्र) भी घोषित हुए इनके आर्टिकल को समाचार पत्र में जगह मिली लेकिन हमारी विजय किरकिरी में बदल गयी। खूब खिल्ली उड़ी। उस दिन से प्रण ले लिया कभी भी उस प्रतियोगिता में भाग न लेने का !
प्रतियोगिता आज भी आयोजित होती है बच्चों के बीच लेकिन एक नियम तय हो गया था उसी रोज़ से कि मंदिर की चौखट से दिये नहीं उठाये जायेंगे।
पता है कई बार जो दिखता है वैसा होता नहीं है....ये बात हमें उसी रोज़ समझ आ गयी थी !!!
चलो अब विदा लेती हूँ , दिवाली की तुमको बहुत बहुत शुभकामनायें।
और हाँ, याद रखना, दिवाली के बाद दिये उठाने ना जाना तुम वरना हमारी तरह तुम्हारी बहादुरी का नाम भी मज़बूरी घोषित करके किसी पत्रिका में छाप दिया जायेगा....!!!!!!!!!!!!
🎇🪔✨आपको दीपावली की हार्दिक शुभकामनाएँ! यह पर्व आपके जीवन में खुशियाँ, सुख-समृद्धि, और सफलता लेकर आए।✨🪔🎇
ReplyDelete*🙏🏻✨!शुभ दीपावली!✨🙏🏻*
🪔🪔🪔
*सौजन्य से:*
*दिव्याँश मिश्रा*
I think that the reason why people lost all excitement for every festival because they are become a mobile zombie or you can say slave of bad dopamine ( Dopamine realise while scrolling without any hard work)
ReplyDeleteWell said 💯
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