पता है इस बीच तुमसे बात करने के समय पर दिमाग खाली हो जा रहा है। और पढ़ते वक्त तो इतने विचार दौड़ते हैं दिमाग में कि मन करता है बस कागज़ कलम लेकर उतार ही दूँ पन्नो पर। लेकिन फिर दिमाग में दौड़ते विचारों के घोड़ों को पकड़ कर बाँध देती हूँ क्योंकि पढ़ाई एकाग्रता मांगती है विचारों के दौड़ते घोड़े नहीं। ऐसे ही आज अचानक बैठे बैठे विचारो के घोड़े दौड़ गए और मुझे खयाल आया कि ...हम हर गुज़रते क्षण के साथ बड़े होते जा रहे हैं..birthday वाले दिन इतना मौका ही नहीं मिला कि उम्र पर ध्यान जा पाता...आज अचानक दिमाग में उम्र की गिनती आयी तो दिल जोरों से धड़कने लगा । फिर दिमाग ले गया 5 साल पहले जहां मैं इस उम्र में खुद के independent होने के सपने देखा करती थी...और जब वापस आज पर आती हूँ तो लगता है आज तो वो भी नहीं जो कल हुआ करता था मेरे पास....कॉन्फिडेंस / आत्मविश्वास !!
फिर दिल को शांत करा कर विचारों के दौड़ते घोड़ों को पकड़ा और बाँध दिया उसे एक कोने में। शाम को जब लाइब्रेरी से बाहर निकली सब कुछ समेट कर तो शीत की परत नज़र आयी। फिर खुद को देखा तो पाया कि इससे लड़ने के लिए तो उपयुक्त उपकरण ही नहीं है मेरे पास। उपकरण बोले तो सर्दी से बचने के लिए सर्दी वाले कपड़े। और वो इसलिए नहीं थे क्यूंकि सुबह जबतक मैं घर से बाहर निकलती हूँ तबतक सर्दी का प्रकोप थोड़ा कम हो चुका होता है।
पता है, मुझे सर्दियां नहीं पसंद !! हाँ, पता है लगभग लोगों का पसंदीदा ऋतु यही होता है। पर मेरा नहीं है। उसका सबसे बड़ा कारण है सूरज की किरणे। जो सर्दियों में धरती तक बहुत कम पहुँच पाती हैं। मुझे धूप बहुत पसंद है। गर्मियों के दिनों में भी मैं अक्सर घर की चौखट पर बैठ कर धूप सेंका करती थी। हाँ वही मेरी पसंदीदा चौखट। जहाँ बैठ कर मेरे मन में न जाने कितने क्रन्तिकारी विचार पनपे होंगे। उन विचारों के पनपने में धूप का बड़ा योगदान रहा है। तुमसे बात भी तो वहीं बैठकर करती हूँ अक्सर।
अरे नहीं जादू नहीं हूँ मैं जिसे धूप से ताकत मिलती है , हाँ लेकिन धूप फिर भी पसंद है मुझे। नहीं, विचित्र प्राणी नहीं हूँ मैं। मुझसे भी धूप एक सीमा तक ही सहन हो पाती है। गर्मियों में सुबह की धूप और सर्दियों में तो ओए होए....पूरा दिन ही धूप का आनंद उठाया जा सकता है। सर्दियों की सबसे अच्छी बात केवल यही लगती है मुझे।
और सबसे बुरी बात भी यही लगती है कि कई कई दिन तो धूप का दीदार करने को ही नहीं मिलता !!
बड़ा खोया खोया सा लगता है कुछ ,सर्दियों के दिनों में इसीलिए।
सर्दियों को ना पसंद करने की बहुत सारी वजहें हैं, सबसे पहली वजह तो पहले ही बता चुकी हूँ। दूसरी वजह ये है कि सर्दियों में बहुत सारे कपडे पहनने पड़ते हैं, और बहुत सारे कपड़े पहनना मुझे घुटन भरा लगता है। ऐसा लगता है कपड़ों के ढेर से घिरी हुई हूँ। तीसरी वजह ये है कि एक तो मैं आलसी बहुत हूँ दूसरा मुझे ठण्ड लगती है तो मैं उठ नहीं पाती हूँ सुबह जल्दी। यहाँ भी मेरा हिसाब उल्टा ही चलता है औरों से। लोगों को ठण्ड लगे तो उनकी आँखे खुल जाती हैं, मुझे लगे तो मैं उठ ही नहीं पाती हूँ। और सुबह उठ ना पाओ तो मतलब पूरी दिन चर्या की शुरुवात ही आलसपने से हुई अब आगे क्या ही उम्मीद की जाये। आधा समय तो केवल उठने में ही लगा दिया। और तो और भाईसाब ,नहाना, ये तो सबसे बड़ी आफत है। पानी देखकर ही प्राण सूख जाते हैं। और मेरे घर का तो रिवाज है अगर आप किसी भी दिन नहाने में चूक जाएँ तो आपको मलिच्छों का राजा या रानी घोषित करने में जरा भी देर नहीं लगाएंगे भले चाहे गर्मी हो या ठंडी। ऊपर से जिस दिन बाल धुलने हों समझ लो आफत ही आफत , सूखते ही नहीं घंटों। और ठण्ड लगती है सो अलग।
ये सारी वजहें तो एक तरफ हो गयी। और भी एक वजह है , वो ये कि मम्मी को अकेले रसोई में काम करना पड़ता है। मैं बहुत बेशरम होना भी चाहूँ तो अपने भाई जितनी बेशरम नहीं हो सकती कि कोई अकेले रसोई में खड़ा काम करे और मैं जाकर कोई मदद भी ना कराऊँ ! हालांकि मैं फिर भी इतनी बेशरम हूँ कि सर्दी वाले दिनों में मैं बाकी सारे काम कर लेती हूँ लेकिन पानी वाले कामों के पास तो बिल्कुल भटकना नहीं चाहती। मुख्यतः बर्तन धोने का काम ! मम्मी इन कामों से मुझे दूर ही रखती हैं लेकिन जब उनका स्वस्थ ख़राब हो जाता है , तो सब मेरी तरफ मुँह उठा कर देखने लगते हैं तब तो कोई चारा ही नहीं बचता मेरे पास। फिर तो ना चाहते हुए भी मुझे पानी नामक दानव से दो दो हाथ करने ही पड़ते हैं।
और वजह बताऊं क्या ? या इतने काफी हैं तुमको समझाने के लिए कि मुझे सर्दियाँ क्यों नहीं पसंद !!
चलो विदा दो अब ज्यादा बात नहीं कर सकती तुमसे क्योकिं तुमसे बात करने के लिए अब स्क्रीन के सामने बैठना पड़ता है। और मेरी आँखें आजकल स्क्रीन देखना नहीं चाहती हैं। जबरदस्ती करो तो सिर में उथल पुथल मचा देती हैं और गुस्से से लाल भी हो जाती है। परसो जबरदस्ती एक लेक्चर एक्स्ट्रा देखने का प्रयास किया था तबसे गुस्साई बैठी हैं आँखे एकदम गुस्से से लाल....अभी तक लालिमा भंग नहीं हुयी है। और इनकी शैतानी और मनमानी के चलते तो चश्मे का नंबर भी बढ़ गया है।
बुढ़ापा आने से पहले ही कमजोर हुई जा रही हैं आँखे....
अच्छा ये उम्र भी क्या गजब चीज है ना सखी, दिन प्रतिदिन घटती जाती है और हमें लगता है बढ़ रही है !!
चलो शुभरात्रि , खयाल रखना अपना !!!