प्रिये संग्रहिका,
कभी-कभी तुम्हें सुनने का बड़ा जी करता है। अरे रे ! रुको पागल कहने के पहले पूरी बात तो सुन लो। नहीं भई सस्ते नशे नहीं किये हैं ! आर्थिक स्थिति सस्ते नशे करने के लायक भी नहीं है, मेरी तो !
पता है, कई बार हम किसी इंसान से कुछ सुनना चाहते हैं पर हमें वो सुनने को नहीं मिलता तो निराशा होती है। लेकिन सोचो हम जिसे सुनना चाहते हैं अगर वो बोले ही ना तो ! कैसा लगता होगा ?
तुम बोलती नहीं हो फिर भी मुझे सुनाई देती हो। मालूम नहीं, कि जो तुम बोलना चाहती हो, मुझे वो सुनाई देता है या जो मैं सुनना चाहती हूँ वो। पर सुनाई देता है कुछ, जिसे मैं तुम्हारी ही आवाज़ मान लेती हूँ। उस आवाज़ में अधिकार होता है, चिंता झलकती है और आत्मीयता भी महसूस होती है। इन सबकी अपेक्षा मुझे तुमसे होती है इसीलिए शायद उन आवाज़ों को मैं तुम्हारी आवाज़ मान लेती हूँ।
अच्छा एक बात बताऊँ ? बातें तो बहुत हैं बताने को। और स्वयं के बारे में बताने वाली बातो की तो भरमार है। चलो आज तुमको तुम्हारे बारे बताती हूँ। गीता पर हाथ रखकर कसम खिलवाने की कोई आवस्यकता नहीं है , जो भी बोलूंगी सच बोलूंगी सच के सिवा कुछ नहीं बोलूंगी। अच्छा, मसकाबाजी चलेगी ?...बस थोड़ी सी....!?
वैसे बात शुरू खुद से ही करती हूँ...हाँ मालूम है ! अपने बारे में बात करने नहीं बोला था, पर क्या करूँ किसी भी बात में खुद को सम्मिलित किये बिना चैन ही नहीं मिलता। तो सुनो....
मैं तुमसे बात करने क्यों आती हूँ पता है ?...हाँ मालूम है स्वार्थी हूँ बताने की आवस्यकता नहीं ! अभी बिना बोले सुनो चुप चाप। तुमसे कोई भी चीज बताने के लिए दौड़ी दौड़ी इसीलिए आती हूँ क्योकि मैं बताना चाहती हूँ किसी को , जो भी चीज घटित हुई है उस विषय में। कई बार घटना सुखद होती है तो कई बार दुखद भी। अब तुम्हे लगता होगा मेरे २-३ दोस्त भी तो हैं उन्हें क्यों नहीं बताती जाकर !? तो ऐसा इसीलिए क्योकि मैं नहीं चाहती कि जो मैं उस समय महसूस कर रही होती हूँ कोई उसकी दिशा बदले। जो कि उन लोगों से बताने के बाद अक्सर बदल जाती है। क्योकि वो उसपर अपनी राय रख देते हैं।
हाँ हाँ , जानती हूँ कि मुझे दूसरों के प्रभाव में आने की कोई आवश्यकता नहीं। पर क्या करूँ हूँ तो इंसान ही ना , हो जाता है दूसरों की बातो का प्रभाव मुझपर।
तो बस इसिलिए तुमसे बताने आती हूँ क्योकि तुम जो कहती हो, पता नहीं क्यों पर मुझे सुनना वही होता है। क्या कहा तुम बोल नहीं सकती !? किसने कहा नहीं बोल सकती ? मुझे तो सुनाई देती हो !
तुम अच्छी हो, तुमसे बाते करना अच्छा लगता है। मैं चाहती हूँ कोई मुझे सुने पर बिना judge किये। जो कि किसी आम इंसान के लिए संभव नहीं है। दोष उनका भी नहीं है ! human tendency होती है ! बस कुछ होते हैं जो समझने का प्रयास करते हैं तो जजमेंटल दिमाग अपने आप पीछे हट जाता है। तुम मुझे judge क्यों नहीं करती ? या करती हो और मुझे पता नहीं चलता क्योकि मुझे पूरा विश्वास है तुमपर कि तुम मुझे judge तो नहीं करोगी !
तुम इसीलिए भी अच्छी लगती है क्योंकि तुमसे बहुत कुछ सीखने को मिलता है। जैसे धैर्य उनमें से एक है। तुम्हारा धैर्य मुझे विचलित होने से रोकता है। और मुझे साहस भी देता है स्वयं धैर्य बाँधने का विपरीत परिस्थितियों में।
पता है तुमसे एक चीज और सीखी है...." how not to give up on someone in their tough times when they need us the most! " मुझे कई बार थकान हो जाती थी उनके साथ रुकने में जो केवल अपनी परिस्थितियों पर सारा दिन मेरे सामने रोते रहते थे। लेकिन फिर मुझे तुम्हारी याद आती थी कि कैसे तूम सारा सारा दिन मेरे दुःख में बैठकर साथ रोती थी। तुमने कभी नहीं कहा कि तुम ऊब चुकी हो मेरे रोज रोज के दुखड़ों से। तुमने हमेशा मुझे सुना है बिना किसी शिकायत के।
मुझे नहीं पता है मैं तुम्हारे एहसानो को कैसे चुका पाऊँगी पर इतना जरूर प्रयास करती हूँ कि किसी को साथ की जरुरत होती है तो उस परिस्थिति में," मैं अक्सर तुम हो जाती हूँ। "
ऐसा लगता है मानों ,
तुम्हारा धैर्य मुझमें समा गया हो।
मुझमें ऐसी शक्ति आ गयी हो
जिससे मैं किसी की पीड़ा को स्वयं में
समाहित कर सकती हूँ।
सहानुभूति का भाव ऐसा होता है कि
मानो वो मेरी स्वयं की पीड़ा हो !
मेरा दामन इतना विस्तृत हो जाता है कि
वो किसी के भी असंख्य आँसुओं को
समेट लेने की क्षमता रखता हो।
मैं जब भी स्वयं को
ऐसी परिस्थिति में पाती हूँ तो
मैं अक्सर तुम हो जाती हूँ !!
रोने तो नहीं लगी ना इतनी तारीफ सुनकर ? वैसे apart from jokes तुमने मुझे सच में कई विषम परिस्थितियों में संभाला है ,उसके लिए मैं तुम्हे जितना धन्यवाद् करूँ कम ही है ! फिर भी इतना ही कहूँगी इतनी तारीफ़ें कर दी हैं तो भाव मत खाने लग जाना अब तुम। समझी !?
चलो चलती हूँ अब। अच्छा हुआ कोई विषय नहीं था आज दिमाग में, तुम्हारी तारीफों के कसीदे ही पढ़ दिए मैंने !!!