प्रिय संग्रहिका,
जानती हो आज़ाद होने के असल मायने क्या होते हैं ? जब हम पूर्णतः अपनी शर्तों पर जीते हैं, बिना रोक टोक वो सब कर सकते हैं जो करना चाहते हैं। पाबंदियाँ केवल दूसरे ही हमपर नहीं लगाते, कई बार हम स्वयं भी स्वयं पर पाबंदियां लगाते हैं। दूसरों की पाबंदियाँ तबतक ही हम पर रह सकती हैं जबतक उस व्यक्ति का हमपर आधिपत्य होता है। लेकिन हमारी पाबंदियाँ जो हम स्वयं पर लगाते हैं वो थोड़ा मुश्किल होता है हटाना। क्यूंकि वहाँ हमारी लड़ाई स्वयं हमसे से ही होती है और स्वयं पर विजय प्राप्त करना बड़ा ही कठिन कार्य होता है।
देखो ज्यादा कॉम्प्लिकेट नहीं करुँगी ध्यान से सुनो बताती हूँ... हम ना कितनी भी कोशिश कर लें लेकिन हम कहीं ना कहीं अपने आसपास के लोगों से प्रभावित हो रहे होते हैं। जैसे देखो कई बार हम ऐसे लोगो से मिलते हैं जिनसे मिलकर काफी अच्छा लगता है ऐसा लगता है मानो उनसे बात करके नयी ऊर्जा का संचार हो रहा हो सकारात्मक तरंगे महसूस होती हैं आसपास। वहीं कुछ लोगों से मिलकर इतना नकारात्मक महसूस होता है भले ही केवल ५-१० मिनट के लिए ही क्यों न मिले हों लेकिन उनका साथ इतनी नकारात्मक शक्तियां समेटे रहता है कि थकान महसूस होने लगती है, लगता है दुनिया कितनी बुरी है, किसी पर भरोसा करने लायक नहीं है। और तो और (self doubt) स्वयं की क्षमताओं पर भी संदेह होने लगता है ऐसा लगता है, हम किसी लायक नहीं हैं, हमारा जीवन बेकार है, हम केवल धरती पर बोझ हैं। और हमने अभी तक की अपनी सारी जिंदगी केवल बर्बाद की है, कुछ भी सराहनीय कार्य नहीं किया है। हम अपनी ही पीढ़ी से पीछे चल रहे हैं।
ज्यादा नकारात्मक बाते हो गयीं क्या ? क्या करूँ कुछ लोगों से मिलकर ऐसा ही लगता है। और वो कुछ लोग कोई और नहीं बल्कि हमारे स्वयं के मित्र होते हैं, पडोसी होते हैं, रिश्तेदार होते हैं और परिवारवाले भी कई बार। तो देखो हम कितनी जल्दी लोगों से (influence) प्रभावित हो जाते हैं। आज़ादी तो मुझे इन तत्वों के प्रभाव से चाहिए जो मेरे दिल का चैन, रातो की नींद सब उड़ा देते हैं। इतना (useless) बेकार महसूस करा देते हैं !! अब ऐसा तो संभव नहीं है की इन लोगो से मिलना बंद कर दिया जाये। हाँ लेकिन ये संभव जरूर है कि हम स्वयं को इतना मजबूत बना लें कि इनके प्रभाव में आएं ही ना।
चलो ये तो हुई नकारात्मक विचारों के प्रभाव से आजादी। सामाजिक नियमो से आज़ादी की बात करूँ क्या ? हाँ जानती हूँ पक चुकी हो सुन सुनकर लेकिन चलो मेरे लिए एक बार और सही सुन लो...
समाजिक नियम से लगभग हर व्यक्ति ऊब चुका है। सामाजिक नियम बनाये तो इसीलिए गए थे ताकि मनुष्यों की सहायता हो सके सुचारु रूप से काम करने में लेकिन कब ये नियम हमारे पाँवों की बेड़ियाँ बन गयीं हमें खुद भी पता नहीं चला। कुछ नियम आज भी हैं जो समाज की व्यवस्था बनाये रखने के साथ साथ व्यक्ति की सहजता का भी ध्यान रखती हैं लेकिन "कुछ" ही। अब तो लगभग नियमों ने पाबंदियों का रूप धारण कर लिया है। समाज चाहता है, हम उसके नियमो का पालन किसी भी सूरत में करें। अब वो सहर्ष करें या हर्ष त्याग कर करें लेकिन करें जरूर।
पता है विवाह ऐसा ही एक नियम है जिसे समाज हर व्यक्ति पर थोपना चाहता है। विवाह समाज की आवस्यकता है लेकिन हर व्यक्ति की नहीं। ये बात न तो समाज को समझ आती है न ही समाज की रक्षा कर रहे ठेकेदारों को। विवाह का उद्देश्य प्राचीन काल में भले संतान उत्पत्ति का रहा हो फिर शारीरिक उपभोग का भी लेकिन समय के साथ इंसान भी बदलता है और उसकी आवस्यकताएँ भी। आज विवाह का उद्देश्य संतान उत्पत्ति और शारीरिक उपभोग से कहीं आगे निकल चुका है। विवाह मेरे लिए शंका का बंधन इसीलिए है क्योंकि एक तो विवाह करने के जो नियम निर्धारित हैं वो मुझे बिल्कुल पसंद नहीं है। मतलब ये क्या नियम हैं जिसमे किसी भी अनजान व्यक्ति के साथ हम अपना पूरा जीवन व्यतीत करने के लिए तैयार हो जाते हैं !! मतलब कोई सेंस (sense) है इस बात की !? देखो मुझे ये बात तो पता है कि ये नियम किसी के द्वारा बनाये नहीं गए हैं बल्कि जो नियम बने थे उन्ही का रूप (corrupt) भ्रष्ट हो चुका है और सस्ते नशे कर रहा ये समाज उन्ही नियमो को छाती से लगाए दिन रात उसकी रक्षा कर रहा है ठीक वैसे जैसे एक अबोध बालक अपने बेजान खिलौनों को जीवित मान कर उसका लालन पोषण करता है।
समस्या क्या है अपना जीवनसाथी खुद चुनने में !!? मैं पूछती हूँ समस्या क्या है अविवाहित रहने में ही ? फिर से वही समाज ! क्योंकि समाज कहता है ! अरे भई समाज हमसे ही बनता है और मुझे कोई समस्या नहीं है किसी के अविवाहित रहने से ! फिर आखिर समाज में समस्या है किसको ? हाँ..... एक विशिष्ट वर्ग को !! जो स्वयं विवाहित है और चाहता है बाकी लोग भी उसी दलदल में फंसे जिसमें वो फंस चुका है ! बस इसके अतिरिक्त तो कोई और समस्या है ही नहीं !
कारण है जलन ,ईर्ष्या ,परसन्ताप !!!
काफी ज्वलंत हो गया ना...क्या करूँ ये विषय भावुक ही इतना कर देता है।
एक और चीज से भी आज़ादी चाहिए...कट्टरपंथी विचारधारा से ! हाँ सही समझा, धर्म की कट्टरता से !!
धर्म की कट्टरता तो दुनिया पर इस कदर छायी हुई है कि हर कोई धर्मांध हो चूका है। मनुष्य और मनुष्यता से तो किसी को कुछ लेना देना ही नहीं है ! ऐसा धर्म जिसके मूल में मनुष्यता ना हो ऐसे धर्म को पेट्रोल झिड़ककर जला देना चाहिए। ब्लासफेमी तो इस कदर तूल पर चढ़ी हुई है कि अब तो कुछ लिखते भी डर लगता है। लाज़मी भी है डर लगना। अब ऐसे व्यक्ति को कोई क्या ही समझाए जिसकी खोपड़ी में दिमाग ही न हो ! हम प्रश्न नहीं करेंगे तो ईश्वर को श्रेष्ठ साबित भी कैसे ही किया जायेगा। तर्क वितर्क के बिना कोई निष्कर्ष निकलेगा भी तो कैसे ? पर ये बात बिना दिमाग वाली खोपड़ियों में जाये तो जाये भी कैसे ? धर्म के नाम पर किसी बेगुनाह की हत्या कर देना आखिर क्या है ये सब ! कौन सा नियम कानून है तुम्हारी धर्म की किताब में जहाँ मनुष्यता जैसा शब्द सम्मिलित ही नहीं है। क्या ईश्वर कहता है की मेरे लिए तुम लोग आपस में लड़ो ? नहीं कहता कभी नहीं कहता ! ईश्वर सहयोग की बात करता है लेकिन वो तो किसी से होता नहीं है ! क्या दोगले लोग हैं यार हम सब ! ईशवर के नाम पर मर मिटने को तैयार हैं लेकिन जो ईश्वर असल में चाहता है वो करने में हमारी आत्मा शरीर से निकल जाती है !!
कब सुधरेगी ये मनुष्य जाति सुधरेगी भी या नहीं !! अंग्रेजो से लड़कर आज़ादी ले ली। कट्टरपंथियों से किस कदर आज़ादी ली जाये !?
अच्छा है तुम इन सब मोह माया से ऊपर हो, मेरी इतनी बाते सुनने के बाद भी तुंम्हारे मन में कलुषित विचार नहीं जन्मते !चलो बहुत हुई आज़ादी, आज के लिए इतना ही... जाओ तुमको भी आज़ाद किया, फिर मिलते हैं।
गजब👏👏👏 कुछ बाते तो चोट कर गई..
ReplyDelete