अक्टूबर ३ ,२०२४
बृहस्पतिवार ,
१०:२३(अपराह्न)
प्रिय दैनन्दिनी ,
किसके लिए क्या महत्वपूर्ण है ये व्यक्ति विशेष पर निर्भर करता है |और उससे भी अधिक निर्भर करता है इस बात पर कि उसके आसपास का वातावरण कैसा है | क्योंकि यह बात बहुत हद्द तक सच है कि हमारी गतिविधियाँ हमारे विचारों पर निर्भर करती हैं |और हमारे विचार ज्यादातर प्रभावित होते हैं हमारे आसपास के वातावरण से |
हर व्यक्ति की उसके जीवन को लेकर कोई ना कोई महत्वाकांक्षा अवश्य होती है | और इस मामले में पुरुष जाति पर हमेशा से विशेष दबाव रहा है |
पहले ऐसा होता था कि बच्चे के जन्म लेते ही उसके लिंग के अनुसार कर्तव्यों का निर्धारण शुरू हो जाता था | पुरुष वर्ग पर हमेशा से यह भार रहा कि उनकी महत्वाकांक्षा बड़ी होनी चाहिए | स्त्रियों को इस मामले में पहले भारी छूट थी | उन पर कोई दबाव नहीं होता था अपनी पहचान बनाने का, अपने लिए महत्वाकांक्षा निर्धारित करने का | उन पर मात्र एक ही जिम्मेदारी थी, उनके साथ के पुरुषों को उनकी महत्वाकांक्षा पूरी करने में जितना त्याग करके सहयोग कर सके उतना करने का |
पिता, भाई, पति, पुत्र और इससे भी अधिक कभी- कभार एक-आध और रिश्तों की जिम्मेदारी थी बस |
लेकिन अब बेचारी स्त्री जाति को भी इसमें घसीट लिया गया है | अब उनको भी महत्वाकांक्षा गढ़ने का भार सौंप दिया गया है | लेकिन गनीमत इतनी है कि आज भी उनके महत्वाकांक्षाओं को उतना महत्व देने पर जोर नहीं दिया जाता | आज भी उसी छोटी-सी जिम्मेदारी को अधिक महत्व दिया जाता है जो सदियों से चली आ रही है - सहयोग का |
और मुझे ज़्यादती तो पुरुषों के साथ होती नजर आती है | आज भी उन बेचारों को खुद की महत्वाकांक्षाओं को अधिक महत्व देने उसे पूरा करने जितना कठिन कार्य सौंप दिया गया है |
जबकि स्त्रियों को सहूलियत के तौर पर कठिन कार्य करने से रोका जाता है और यदि वह मनमानी करके अपनी महत्वाकांक्षाओं को अधिक महत्व देती है तो उन्हें दंडित किया जाता है | ताकि समस्त स्त्री जाति पर इस बात का भार न आ जाए कि उन्हें भी अपनी महत्वाकांक्षा को महत्व देने का कठिन कार्य करना पड़े |
अरे मैं बात तो किसी और विषय पर करने वाली थी, भूमिका बनाते-बनाते ही एक इतना पैराग्राफ हो गया | बात होनी थी महत्वाकांक्षाओं को पूरा करने में आने वाली कठिनाइयों और चुनौतियों पर|
बात फिर से वहीं से शुरू करती हूँ | किसके लिए क्या महत्वपूर्ण होता है, यह व्यक्ति विशेष पर निर्भर करता है | लेकिन यहाँ दिक्कत तब आती है जब जिसके लिए जो महत्वपूर्ण हो, वह उसे छोड़कर किसी और चीज को महत्व देने लगता है | आश्चर्य की बात होनी चाहिए थी यह, पर अफसोस हम सब ने यह कार्य इतनी बार किया है कि अब हमें यह प्रथा सामान्य लगने लगी है | पर मुझे बदलाव स्वीकारने में थोड़ा समय लगता है इसीलिए इस त्रासदी का सामान्य घटना में बदल जाना मुझे आज भी त्रासदी ही नजर आती है |
जिसके लिए परिवार महत्वपूर्ण होता है, महत्वाकांक्षाओं से अधिक उसको समाज का एक वर्ग यह कह कर धिक्कारता है कि उसने अपने जीवन को व्यर्थ गवाँ दिया और अपनी कोई पहचान नहीं बनाई | यह बात मुख्यता पुरुषों के लिए कही जाती है | उन बेचारों को तो यह अधिकार भी नहीं कि वह परिवार को अधिक महत्व दे सकें | यह अनिवार्य कर दिया गया है कि उन्हें समाज में एक अच्छी-खासी छवि वाली महत्वाकांक्षा को पूरा करना ही करना है |
आजकल तो कुछ वर्ग स्त्रियों को भी इस बात के लिए धिक्कारते हैं-फेमिनिस्ट वर्ग !!!!
फेमिनिस्टों को लगता है, वह पुरानी चली आ रही प्रथा जिसमें स्त्रियों का योगदान मात्र सहयोग भर का होता था, वह असल में अत्याचार था | और वो प्रेरित करते हैं, आजकल की स्त्रियों को कि वह अपनी महत्वाकांक्षाओं को अधिक महत्व दें | और जो नहीं देतीं, ( फेमिनिस्ट की सेट की गई महत्वाकांक्षा ) पर ध्यान उन्हें दिक्कत जाता है | फेमिनिस्ट को इस बात से कोई फर्क नहीं पड़ता कि किसी स्त्री के लिए उसका परिवार अधिक महत्वपूर्ण हो सकता है |
मुझे कभी-कभी स्त्री वर्ग की बीच मझदार में फँसे होने वाली स्थिति पर तरस आता है और कभी-कभी हंसी भी आती है | उन्हें दो ओर से आलोचना झेलना पड़ता है- एक तो फेमिनिस्ट वर्ग से, जो परिवार की महत्ता, स्त्री के लिए जरूरी नहीं मानता और एक वही पुरानी परंपरा को मानने वाले लोगों से, जो समझते हैं कि स्त्री के लिए परिवार को महत्व देना ही उनकी महत्वाकांक्षा होनी चाहिए |
मैं फिर से विषय से भटक गई | शायद !!!!
वैसे कठिनाइयों के तौर पर, आलोचना भी, बड़ा रोड़ा है, महत्वाकांक्षाओं को पूरा करने में | बल्कि मुझे तो लगता है यह सबसे बड़ा रोड़ा है, जिसकी वजह से कई बार तो हम अपनी महत्वाकांक्षाओं पर टिक भी नहीं पाते |
खैर अब विराम देती हूँ, क्योंकि जो लिखना चाहती थी वह तो भूल गई | बदले में पता नहीं क्या-क्या लिख दिया !!!